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जिनागम के अनमोल रत्न ]
माणबक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीत सिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥ 7 ॥
जिस प्रकार सिंह को सर्वथा न जानने वाले पुरूष के लिये बिलाव ही सिंह रूप होता है वास्तव में उसी प्रकार निश्चयनय के स्वरूप से अपरिचित पुरूष के लिये व्यवहार ही निश्चयपने को प्राप्त होता है ।
व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्यतत्त्वेन भवति मध्यस्थः । प्राप्नोति देशनायाः स एव फलमविकलं शिष्यः ॥ 8 ॥
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जो जीव व्यवहारनय और निश्चयनय को वस्तुस्वरूप से यथार्थरूप से जानकर मध्यस्थ होता है, अर्थात् निश्चयनय और व्यवहारनय के पक्षपात रहित होता है वह ही शिष्य उपदेश का सम्पूर्ण फल प्राप्त करता है ।
एवमयं कर्मकृतैर्भावैरसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति बालिशानां प्रतिभासः स खलु भववीजम् ॥14॥
इस प्रकार यह आत्मा कर्मकृत रागादि अथवा शरीरादि भावों से संयुक्त न होने पर भी अज्ञानी जीवों को संयुक्त जैसा प्रतिभासित होता है और वह प्रतिभास ही निश्चय से संसार का बीजरूप है।
तत्रादौ सम्यक्त्वं समुपाश्रयणीयमखिलयत्नेन । तस्मिन् सत्येव यतो भवति ज्ञानं चरित्रं च ।।21।।
इन तीनों में प्रथम समस्त प्रकार सावधानतापूर्वक यत्न से सम्यग्दर्शन को भले प्रकार अंगीकार करना चाहिये क्योंकि उसके होने पर ही सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र होता है।
हिंसा एवं अहिंसा का स्वरूप
हिंसैतत् ।
आत्मपरिणामहिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव अनृतवचनादि केवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ॥ 42 ॥ आत्मा के शुद्धोपयोगरूप परिणामों के घात होने के कारण यह सब