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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः । हिंसायतन निवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। निश्चय से आत्मा के परवस्तु के कारण से जो उत्पन्न हो ऐसी सूक्ष्म हिंसा भी नहीं होती, तो भी परिणामों की निर्मलता के लिये हिंसा के स्थानरूप परिग्रहादि का त्याग करना उचित है । 149 ।।
अविधायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफल भाजनं न स्यात् ।।
निश्चय से एक जीव हिंसा न करते हुए भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र बनता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता । 151 ।।
एक स्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ।।
एक जीव को तो थोड़ी हिंसा उदयकाल में बहुत फल को देती है और दूसरे जीव को महान हिंसा भी उदयकाल में अत्यन्त थोड़ा फल देने वाली होती है । 152 ।।
एकस्य सैव तीव्रं दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । ब्रजति सहकारिणोरपि हिंसा बैचित्र्यमत्र फलकाले ।।
एक साथ मिलकर की हुई हिंसा भी इस उदयकाल में विचित्रता को प्राप्त होती है, किसी एक को वहीं हिंसा तीव्र फल दिखलाती है और किसी दूसरे को वही हिंसा तुच्छ फल देती है । 153।।
प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति च कृता अपि । आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ।। कोई हिंसा पहले ही फल देती है, कोई करते-करते फल देती है, , कोई कर लेने के बाद फल देती है और कोई हिंसा करने का आरम्भ करके न किये