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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [141 ज्ञानी सदा अपनी आत्मा को इस प्रकार देखता है कि आत्मा कर्मों से नहीं बंधा है, वह किसी से नहीं मिला है, शुद्ध है सिद्धों की उपमा धारण करता है, शुद्ध स्फटिक के समान है, सदा आकाश की तरह परिग्रह रहित है, अतीन्द्रिय-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य की मूर्ति है और अतीन्द्रिय सुख आदिक अनन्त स्वाभाविक गुणवाला है। इस प्रकार ज्ञान की ही अद्वितीय मूर्ति-वह ज्ञानी अपने आपको देखता है। प्रसंगवश दूसरे पदार्थ की भले ही इच्छा करे, परन्तु वास्तव में वह समस्त पदार्थों से कृतार्थ सा हो चुका है।।235-236-237।। उपेक्षा सर्वभोगेषु सदृष्टे दृष्टरोगवत् । अवश्यं तदवस्थायास्तथाभावो निसर्गजः।। सम्यग्दृष्टि को प्रत्यक्ष में देखे हुए रोग की तरह सम्पूर्ण भोगों में उपेक्षा (वैराग्य) हो चुकी है और उस अवस्था में ऐसा होना अवश्यंभावी तथा स्वाभाविक है। भावार्थ-सम्यग्दर्शन गुण से होने वाले स्वानुभूति रूप सच्चे सुखास्वाद के सामने सम्यग्दृष्टि को विषयसुख में रोग की तरह उपेक्षा होना स्वाभाविक ही है ।।261।। दैवयोग से (विशेष पुण्योदय से) कालादि लब्धियों के प्राप्त होने पर तथा संसार समुद्र निकट रह जाने पर और भव्यभाव का विपाक होने से यह जीव सम्यक्त्व को प्राप्त होता है।।378 ।। प्रसिद्ध ज्ञानमेवैकं साधनादिविधौचितः। स्वानुभूत्येकहे तुश्च तस्मात्तत्परमं पदम्।। बस आत्मा का एक ज्ञान गुण ही प्रसिद्ध है जो हर एक पदार्थ की सिद्धि कराता है। सम्यग्दर्शन के जानने के लिये स्वानुभूति ही एक हेतु है इसलिये वही सर्वोत्कृष्ट वस्तु है। 401 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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