________________
140]
[जिनागम के अनमोल रत्न
(24) पञ्चाध्यायी अपि किंवाभिनिबोधिकबोधद्वैतं तदादिमं यावत्। स्वात्मानुभूति समये प्रत्यक्षं तत्समक्षमिव नान्यत्।।
विशेष बात यह है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये आदि के दो ज्ञान भी स्वानुभूति के समय प्रत्यक्ष ज्ञान के समान प्रत्यक्ष हो जाते हैं और समय में नहीं।।1-706 ।।
इह सम्यग्दृष्टेः किल मिथ्यात्वोदय विनाशजा शक्तिः काचिदनिर्वचनीया स्वात्मप्रत्यक्षमेतदस्ति यथा।।
तथा सम्यग्दृष्टि जीव के मिथ्यात्व कर्मोदय के नाश होने से कोई ऐसी अनिर्वचनीय शक्ति प्रगट हो जाती है कि जिसके द्वारा नियम से स्वात्म प्रत्यक्ष होने लगता है।1-710।।
अस्ति चैकादशाङ्गानां ज्ञानं मिथ्यादृशोपि यत्। नात्मीयलब्धिरस्यास्ति मिथ्याको दयात्परम्।।
मिथ्यादृष्टि को ग्यारह अंग तक का ज्ञान हो जाता है परन्तु आत्मा का शुद्ध अनुभव उसको नहीं होता है यह केवल मिथ्यादर्शन के उदय का ही माहात्म्य है।।2-199 ।।
सिद्ध मेतावता यावच्छु द्धोपलब्धिरात्मनः। सर्वैर्भावैस्तदज्ञानजातैरनतिक्रमात्
उपर्युक्त कथन से यह बात सिद्ध हो चुकी कि जब तक आत्मा की शुद्ध उपलब्धि है तभी तक सम्यक्त्व है और तभी तक ज्ञानचेतना है।।2-227 ।।
वैराग्यं परमोपेक्षाज्ञानं स्वानुभवः स्वयम्। तद्वयं ज्ञानिनो लक्ष्म जीवन्मुक्त स एव च।।
सम्यग्ज्ञानी, वैराग्य परम उदासीनता रूप ज्ञान तथा अपनी आत्मा का अनुभव स्वयं करता रहता है। वैराग्य परम उदासीनता और स्वानुभव ये ही दो चिन्ह सम्यग्ज्ञानी के हैं और वही ज्ञानी नियम से जीवन्मुक्त है।।232 ।।