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________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [139 पर्यायानंगिनां शुद्धात् सिद्धानामिव यो वदेत्। स्वभावनित्यशुद्धोऽसौ पर्यायग्राहको नयः।।16।। जो नय (अशुद्ध) पर्यायों को धारण करने वाले संसारी जीवों को सिद्धों के समान शुद्ध कहता है, वह नित्य स्वभाव रूप पर्याय का ग्राहक शुद्ध पर्यायार्थिकनय है। स्वभाव से बया चासौ स्वभावः पारिणामिकः। शुद्धाः शुद्धस्वभावः स्यादशुद्धस्तु हि बंधकः।।4।। आत्मा का स्वभाव शुद्ध पारिणामिक भाव है। इस शुद्धस्वभाव के सेवन से जीव मुक्त होता है तथा अशुद्ध स्वभाव के सेवन से बंधता है।। अतः शुद्धता और अशुद्धता दोनों के ही विकल्प आराध्य नहीं हैं, केवल पारमार्थिक भाव (पारिणामिक भाव) ही आराध्य है। पृष्ठ क्र.122 ।। ' ___एको भावः सर्वभावस्वभावः, सर्वे भावा एकभावस्वभावाः। एकोभावस्तत्त्वतो येन बुद्धः, सर्वेभावास्तत्त्वतस्तेन बुद्धाः।।।।। जो एक भाव वाला है, वह सर्व भाव के स्वभाव वाला है; तथा जो सर्व भाव हैं, वे एक भाव के स्वभावमय हैं । अतः जिसने वास्तविक रूप से एक भाव को जान लिया, उसने वास्तव में सर्व भावों को जान लिया। पृष्ठ 123 ।। जीव द्रव्य उत्तम गुणों का धाम है-ज्ञानादि उत्तम गुण इसमें ही हैं। सर्वद्रव्यों में एक जीवद्रव्य ही प्रधान है। कारण कि सर्वद्रव्यों को जीव ही प्रकाशता है। सर्वतत्त्वों में परमतत्त्व ही है और अनंत ज्ञान सुखादि का भोक्ता भी जीव ही है। ऐसा हे भव्य! त निश्चय से जान। -श्री कार्तिकेयस्वामी : द्वादश अनुप्रेक्षा गाथा-204 8888888
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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