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________________ 138] [जिनागम के अनमोल रत्न ( 23 ) श्रुतभवनदीपक नयचक्र सभी जीव स्व-स्वभाव से नयपक्षातीत हैं, क्योंकि सभी सिद्धस्वभाव के समान स्वपर्यवसित स्वभाव वाले हैं | पृष्ठ 17 ।। प्रमाण लक्षण वाला व्यवहारनय भी आत्मा को नपपक्षातीत नहीं कर सकता, अतः पूज्यतम नहीं है; क्योंकि प्रमाण में निश्चय का अन्तर्भाव होनें पर भी वह अन्ययोग का व्यवच्छेद नहीं करता तथा अन्ययोग व्यवच्छेद के अभाव में व्यवहार लक्षणवाली भावक्रिया (विकल्पजाल) का निरोध अशक्य है । अत: वह आत्मा को ज्ञानचैतन्य में स्थापित नहीं कर सकता । आगे और भी कहते हैं कि निश्चयनय आत्मा को सम्यक् प्रकार से एकत्व के निकट ले जाकर, ज्ञानचैतन्य में अच्छी तरह स्थापित करके, परमानन्द को उत्पन्न करके वीतराग करता हुआ, स्वयं निवृत्त होकर आत्मा को नय पक्षातिक्रान्त करता है; अतः पूज्यतम है । इस प्रकार परमार्थ का प्रतिपादक होने से निश्चयनय भूतार्थ है, इसी का आश्रम लेने से आत्मा अन्तर्दृष्टिवान होता है। | पृष्ठ 25 ।। कर्ममध्यस्थितं जीवं शुद्धं गृह्णाति सिद्धवत् । शुद्धद्रव्यार्थिको ज्ञेयः स नयो नयबेदिभिः ।। जो नय कर्मों में स्थित (संसारी) जीव को सिद्धों के समान शुद्ध ग्रहण करता है; उसे नयों के वेत्ताओं ने शुद्धद्रव्यार्थिकनय कहा है ।। 3 ।। गृह्णाति वस्तुभावं शुद्धाशुद्धोपचारपरिहीनं । स परमभावग्राही ज्ञातव्यः सिद्धकामेन ।। जो नय वस्तु के भाव को शुद्ध, अशुद्ध और उपचार की विवक्षाओं से रहित ग्रहण करता है; वह परम भावग्राही द्रव्यार्थिकनय है । इस नय को मोक्ष के अभिलाषियों को अवश्य जानना चाहिये ।।11 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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