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जिनागम के अनमोल रत्न]
__ [137 (22) वृहद् द्रव्य संग्रह मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। बिण्णेया संसारी सब्वे सुद्धा हु सुद्धणया।।13।।
सर्व संसारी जीव अशुद्धनय से मार्गणास्थान और गुणस्थान की अपेक्षा से चौदह-चौदह प्रकार के हैं। शुद्धनय से यथार्थ में सब संसारी जीव शुद्ध जानना।
अशुभपरिणाम बहुलता लोकस्य बपुलता महामहती। योनि बिपुलता च कुरूते सुदुर्लभां मानुषीं योनिम्।।
अशुभ परिणामों की बहुलता, संसार की विशालता, योनियों की अत्यन्त विपुलता-यह सब मनुष्य योनि को बहु दुर्लभ करते हैं। (गाथा 35 की टीका, पृ. 164)
रयणत्तयं ण बट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अण्णदबियम्हि। तम्हा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं आदा।।4।।
रत्नत्रय आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में नहीं रहता इस कारण रत्नत्रयमयी आत्मा ही मोक्ष का कारण है।
मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठणि?अढे सु।
थिरमिच्छहि जइ चित्तं विचित्तझाणप्पसिद्धीए।।48।। ____यदि तुम विचित्त (विकल्पजाल रहित) ध्यान की सिद्धि के लिये चित्त को स्थिर करना चाहते हो, तो इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह मत करो, राग मत करो और द्वेष मत करो।
मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किं वि जेण होई थिरो। __ अप्पा अप्पम्मि रओ इणमेव परं हवे झाणं ।।56 ।।
हे भव्यो! कुछ भी चेष्टा मत करो, कुछ भी मत बोलो, कुछ भी चिन्तवन मत करो, जिससे आत्मा आत्मा में तल्लीनरूप से स्थिर हो जाये। यही परम ध्यान है।