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[जिनागम के अनमोल रत्न णबिएहिं जं णविज्जइ झाझज्जइ झाइएहिं अणवरयं। थुब्वंतेहिं थुणिज्जइ देहत्थं किं पि तं मुणह।103।।
हे भव्यजीवो! तुम इस देह में स्थित ऐसा कुछ क्यों है, क्या है उसे जानो, वह लोक में नमस्कार करने योग्य इन्द्रादि हैं, उनसे तो नमस्कार करने योग्य, ध्यान करने योग्य है और स्तुति करने योग्य जो तीर्थंकरादि हैं, उनसे भी स्तुति करने योग्य है-ऐसा कुछ है वह इस देह ही में स्थित है उसको यथार्थ जानो।
लिंगपाहुड़ णच्चदि गायदि तावं बायं बाएदि लिंगरूपेण। सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो।।4।।
जो लिंगरूप करके नृत्य करता है, गाता है, वादित्र बजाता है सो पाप से मोहित बुद्धि वाला है, तिर्यंच योनि है, पशु है, श्रमण नहीं है।
सद्धर्म बिना मनुष्य जन्म निष्फल एक बार मनुष्यपर्याय मिल भी गई तो फिर उसका दुबारा मिलना तो इतना कठिन है कि जितना जले हुए वृक्ष के परमाणुओं का पुनः उस वृक्ष पर्यायरूप होना कठिन होता है। कदाचित् इसकी प्राप्ति पुनः हो भी जावे तो भी उत्तम देश, उत्तम कुल, स्वस्थ इन्द्रियाँ और स्वस्थ शरीर की प्राप्ति उत्तरोत्तर अत्यन्त दुर्लभ समझना चाहिए। इन सबके मिल जाने पर भी यदि सच्चे धर्म की प्राप्ति न हई तो जिस प्रकार दृष्टि के बिना मुख व्यर्थ है; उसी प्रकार सद्धर्म बिना मनुष्य जन्म का प्राप्त होना व्यर्थ है।
-श्री सर्वार्थसिद्धि |