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जिनागम के अनमोल रत्न]
[135 अर्थात् इनका स्वरूप नहीं जानता है और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता है, वह इस प्रकार कहता है कि अभी ध्यान का कल नहीं है।।5।।
भरहे दुस्समकाले धम्मज्झाणं हवेइ साहुस्स। तं अप्पसहाबठिदे ण हुं मण्णइ सो वि अण्णाणी॥
इस भरतक्षेत्र में दुःखमकाल-पंचमकाल में साधु मुनि के धर्मध्यान होता है यह धर्मध्यान आत्मस्वभाव में स्थित है उस मुनि के होता है, जो यह नहीं मानता है वह अज्ञानी है उसको धर्मध्यान के स्वरूप का ज्ञान नहीं है।।16।।
अज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाएवि लहहिं इंदत्तं। लोयंतियदेवत्तं तत्थ चुआ णिब्बुदिं जति।।
अभी इस पंचमकाल में भी जो मुनि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की . शुद्धता युक्त होते हैं वे आत्मा का ध्यान कर इन्द्रपद अथवा लोकान्तिक देव पद को प्राप्त करते हैं और वहाँ से चयकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। 177 ।।
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरबरा गए काले। . सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।।
आचार्य कहते हैं कि बहुत कहने से क्या साध्य है जो नरप्रधान अतीत काल में सिद्ध हुए हैं और आगामी काल में सिद्ध होंगे वह सम्यक्त्व का माहात्म्य जानो।।88 ।।।
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया। सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं।।
जिन पुरुषों ने मुक्ति को करने वाले सम्यक्त्व को स्वप्नावस्था में भी मलिन नहीं किया, अतीचार नहीं लगाया, उन पुरूषों को धन्य है, वे ही मनुष्य हैं, वे ही भले कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं, वे ही पण्डित हैं ।।89।।