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[जिनागम के अनमोल रत्न प्रथम तो आत्मा को जानते हैं वह दुख से (पुरुषार्थ से) जाना जाता है, फिर आत्मा को जानकर भी भावना करना, फिर-फिर इसी का अनुभव करना दुख से होता है, कदाचित भावना भी किसी प्रकार हो जावे तो भायी है भावना जिसने ऐसा पुरूष विषयों से विरक्त बड़े दुख से (अपूर्व पुरूषार्थ से) होता है।
भावार्थ-आत्मा का जानना, भाना, विषयों से विरक्त होना उत्तरोत्तर यह योग मिलना बहुत दुर्लभ है, इसलिये यह उपदेश है कि ऐसा सुयोग मिलने पर प्रमादी न होना।
अभी पंचमकाल ध्यान का काल नहीं है, इसका निषेध करते हैंचरियाबरिया बदसमिदिबज्जिया शुद्धभावपन्भट्ठा। केई जंपंति णरा ण हु कालो झाणजोयस्स।।
कई मनुष्य ऐसे हैं जिनके चर्या अर्थात् आचार क्रिया आवृत्त है, चारित्र मोह का प्रबल उदय है इससे चर्या प्रगट नहीं होती है इसी से व्रत समिति से रहित हैं और मिथ्या अभिप्राय के कारण शुद्धभाव से अत्यंत भ्रष्ट हैं, वे ऐसे कहते हैं कि-अभी पंचमकाल है, यह काल ध्यान योग का नहीं है।।73 ।।
सम्मत्त णाण रहियो अभब्बजीवो हु मोक्खपरिमुक्को। संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भण्णइ झाणस्स।।
पूर्वोक्त ध्यान का अभाव कहने वाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित है, अभव्य है इसी से मोक्ष रहित है और संसार के इन्द्रियसुखों को भले जानकार उनमें रत है, आसक्त है इसलिये कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है। 74 ।।
पंचसु महब्बदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु।
जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स।। जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनमें मूढ़ है, अज्ञानी है