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________________ 142] [जिनागम के अनमोल रत्न वह आत्मानुभूति आत्मा का ज्ञानविशेष है, और वह ज्ञानविशेष, सम्यग्दर्शन के साथ अन्वय और व्यतिरेक दोनों से अविनाभाव रखता है। 401 ।। जिस आत्मा में जिस काल में स्वानुभूति है, उस आत्मा में उस समय अवश्य ही सम्यक्त्व है क्योंकि बिना सम्यक्त्व के स्वानुभूति हो नहीं सकती। 405 ।। अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शुद्धात्मा का उपयोगात्मक अनुभव हो भी और नहीं भी हो। परन्तु सम्यक्त्व के होने पर स्वानुभवावरण कर्म का क्षयोपशम रूप (लब्धि) ज्ञान अवश्य है। 406 ।। सम्यक्त्व नित्य है इसका आशय यही है कि उपयोग की तरह वह बराबर बदलता नहीं है तथा लब्धिरूप अनुभव भी नित्य है। इसलिये सम्यक्त्व और लब्धिरूप अनुभव की तो सम व्याप्ति है। परन्तु सम्यक्त्व और उपयोगात्मक-अनुभव की विषय ही व्याप्ति है क्योंकि उपयोगात्मक ज्ञान सदा नहीं रहता है। 409 ।। यदि श्रद्धादिक गुण स्वानुभूति के साथ हों तो वे गुण (सम्यग्दर्शन के लक्षण) समझे जाते हैं और बिना स्वानुभूति के गुणाभास समझे जाते हैं। अर्थात् स्वानुभूति के अभाव में श्रद्धा आदिक गुण नहीं समझे जाते ।।415 ।। बिना स्वार्थानुभव के जो श्रद्धा केवल सुनने से अथवा शास्त्रज्ञान से ही है वह तत्त्वार्थ के अनुकूल होने पर भी पदार्थ की उपलब्धि न होने से श्रद्धा नहीं कहलाती ।।421।। सम्यक्त्वस्वरूप आत्मा ही धर्म कहलाता है अथवा शुद्धात्मा का अनुभव होना ही धर्म है और अतीन्द्रिय, अविनाशी क्षायिक सुख ही धर्म का फल कहलाता है।।432 ।। - यह बात ठीक है कि आदि के दोनों ज्ञान (मति-श्रुत) परोक्ष हैं परन्तु वे पर-पदार्थ का ज्ञान करने में ही परोक्ष हैं, स्वात्मानुभव करने में वे भी
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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