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[जिनागम के अनमोल रत्न
जे दंसणेसु भट्ठा णाणे भट्ठा चरित्तभट्ठा य । दे भट्ठ वि भट्ठा सेसं पि जणं विणासंति ।।8।। जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट हैं तथा ज्ञान - चारित्र में भी भ्रष्ट हैं वे पुरूष भ्रष्टों में भी विशेष भ्रष्ट हैं । वे स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही परन्तु अन्य जनों को भी नष्ट करते
हैं।
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जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं । ते होंति लल्लमुआ वोही पुण दुल्लहा तेसिं । । 12 ।।
जो पुरुष दर्शन में भ्रष्ट हैं तथा अन्य जो दर्शन के धारक हैं उन्हें अपने पैरों पड़ाते हैं, नमस्कारादि कराते हैं वे परभव में लूले, मूक होते हैं और उनके बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति दुर्लभ होती है।
जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जागारवभयेण । तेसिं पि णत्थि वोही पावं अणुमोयमाणाणं । ॥13 ॥
जो पुरूष दर्शन सहित हैं वे भी, जो दर्शन भ्रष्ट हैं उन्हें मिथ्यादृष्टि जानते हुए भी उनके पैरों पड़ते हैं, उनकी लज्जा भय, गारव से विनयादि करते हैं, उनके भी बोधि की प्राप्ति नहीं है, क्योंकि वे भी मिथ्यात्व जो कि पाप है, उसका अनुमोदन करते हैं ।
सूत्र पाहुड़
जह जाय रूब सरिसो तिल तुसमेतं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं । ॥18 ॥
मुनि यथाजातरूप है जैसे जन्मता बालक नग्नरूप होता है वैसे नग्नरूप दिगम्बर मुद्रा धारक है, वह अपने हाथ से तिल के तुषमात्र भी कुछ ग्रहण नहीं करता है और यदि थोड़ा बहुत लेबे - ग्रहण करें तो वह मुनि ग्रहण करने से निगोद में जाता है।