________________
जिनागम के अनमोल रत्न ]
(21) अष्टपाहुड़ ( दर्शन पाहुड़) दंसणमूलो धम्मो उवइट्ठो जिणवरेंहिं सिस्साणं । तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण बंदिव्वो ।। जिनवर जो सर्वज्ञदेव हैं उन्होंने शिष्यों को उपदेश दिया है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है। हे सकर्ण अर्थात् सत्पुरुषो ! उस धर्म को अपने कानों से सुनकर जो दर्शन रहित हैं वे वंदन योग्य नहीं हैं इसलिये दर्शनहीन की वंदना मत करो ॥ 2 ॥
दशणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं । सिज्झति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिघ्झति ॥ 3 ॥
जो पुरुष दर्शन से भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं, जो दर्शन से भ्रष्ट हैं उनको निर्वाण नहीं होता; क्योंकि यह प्रसिद्ध है कि जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे तो सिद्धि को प्राप्त होते हैं परन्तु जो दर्शन भ्रष्ट हैं वे सिद्धि को प्राप्त नहीं होते ।
12
सत्थाइं ।
सम्मत्त रयणभट्ठा जाणंता बहुविहाइं आराहणा विरहिया भमंति तत्थेव तत्थेव ॥4॥
[127
जो जीव सम्यक्त्वरूप रत्न से भ्रष्ट हैं तथा अनेक प्रकार के शास्त्रों को जानते हैं तथापि वह आराधना से रहित होते हुए संसार में ही भ्रमण करते हैं । दो बार कहकर बहुत परिभ्रमण बतलाया है।
सम्मत्तविरहिया णं सुट्ठ वि उग्गं तब चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडिहिं । 5 ।।
जो पुरूष सम्यक्त्व से रहित हैं वे सुष्ठु अर्थात् भली भाँति उग्र तप का आचरण करते हैं तथापि वे बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रमय जो अपना स्वरूप है उसका लाभ प्राप्त नहीं करते; यदि हजार कोटि वर्ष तक तप करते रहे तब भी स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती ।