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जिनागम के अनमोल रत्न]
[121 चेयणरहियो दीसई ण य दीसइ इत्थ चेयणासहिओ। तम्हा मज्झत्थो हं रूसेमि य कस्स तूसेमि।।
इस संसार में चेतन रहित पदार्थ दिखाई देता है और चेतना सहित पदार्थ दिखाई नहीं देता है। इस कारण मैं मध्यस्थ हूँ, किससे रुष्ट होऊं और किससे सन्तुष्ट होऊं।।36।।
तीन भुवन में भी स्थित सभी जीव अपने समान दिखाई देते हैं इसलिये वह मध्यस्थ योगी न तो किसी से रुष्ट होता है और न किसी से सन्तुष्ट होता है। 37।।
निश्चय से सभी जीव जन्म मरण से विमुक्त आत्म प्रदेशों की अपेक्षा सभी समान, आत्मीय गुणों से सभी सदृश और ज्ञानमयी हैं। 38 ।।
अहो...चैतन्य स्वरूप की अद्भुत महिमा....
देखो...इस चैतन्यस्वरूप की अद्भुत महिमा! उसके ज्ञान स्वभाव में समान ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलकते हैं, | किन्तु वह स्वयं ज्ञेयरूप नहीं परिणमता है और उस झलकने में (जानने में) विकल्प का अंश भी नहीं है, इसलिए उसके निर्विकल्प, अतीन्द्रिय अनुपम, बाधारहित और अखण्ड सुख उत्पन्न होता है, ऐसा सुख संसार में नहीं है, संसार में तो दुःख ही है। अज्ञानी जीव इस दुःख में भी सुख का अनुमान करते हैं, किन्तु वह सच्चा सुख नहीं है।
-समाधिमरण : पं. गुमानीरामजी