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[जिनागम के अनमोल रत्न (19) रयणसार सप्पुरिसाणं दाणं, कप्पतरूणं फलाण सोहा वा। लोहीणं दाण जदि, विमाण सोहा सवं जाणे।।26।।
सत्पुरूषों का दान कल्पवृक्ष के फलों की शोभा के समान है और लोभी पुरूषों का जो दान है, वह अर्थी के शव की शोभा के समान है, ऐसा जानो।
जिण्णुद्धार-पदिट्ठा-जिणपूया तित्थवंदन वसेसधणं। जो भुञ्जदि सो भुञ्जदि, जिणदिटुंणरयगदिदुक्खं ।।32।।
जो व्यक्ति जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा और तीर्थयात्रा के अवशिष्ट धन को भोगता है, वह नरक गति के दुख को भोगता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।
पुत्तकलत्तविदूरो, दरिद्दो पंगुमूकबहिरंधो। चाडालादि कुजादो, पूयादाणादि दव्वहरो।।33।।
पूजा, दान आदि के द्रव्य का अपहरण करने वाला पुत्र-स्त्री रहित, दरिद्री, लंगड़ा, गूंगा, बहरा, अन्धा और चाण्डाल आदि कुजाति में उत्पन्न होता है।
णरइ तिरियाई दुगदी, दारिद्द-वियलंप हाणि दुक्खाणि। देव-गुरू-सत्थवंदण-सुदभेद-सज्झयविघणफलं।।37।।
नरकगति, तिर्यञ्चगति, दुर्गति, दरिद्रता, विकलांग, हानि और दुख-यह सब देववन्दना, गुरुवन्दना, शास्त्रवन्दना, श्रुतभेद और स्वाध्याय में विघ्न डालने के फल हैं।
सम्यग्दृष्टि वैराग्य और ज्ञानभाव से समय को व्यतीत करता है, जबकि मिथ्यादृष्टि आकांक्षा, दुर्भाव, आलस्य और कलह से समय बिताता है ।।53।।
अण्णाणीदो विषयविरत्तादो होदि सयसहस्सगुणो। णाणी कषायविरदो विषयासत्तो जिणद्दिढें ।। विषयों से विरक्त अज्ञानी की अपेक्षा विषयों में आसक्त कषायों से