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________________ 120] [जिनागम के अनमोल रत्न (18) तत्त्वसार कालाइलद्धि णियडा जह जह संभवइ भव्वपुरिसस्स। तह तह जायइ Yणं सुसब्बसामग्गि मोक्खटुं ।। जैसे-जैसे भव्य पुरूष की काल आदि लब्धियां निकट आती जाती हैं, वैसे-वैसे ही निश्चय से मोक्ष के लिये उत्तम सर्व सामग्री प्राप्त हो जाती है।12।। संका-कंखागहिया विषयपसत्ता सुभग्गपन्भट्ठा। एवं भणंति केई ण हु कालो होई झाणस्स।।. शंकाशील और विषयसुख की आकांक्षा वाले, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त और मोक्ष के सुमार्ग से प्रभ्रष्ट कितने ही पुरूष इस प्रकार कहते हैं कि यह काल ध्यान के योग्य नहीं है।14।। अज्जवि तिरयणवंता अप्पा झाउण जंति सुरलोए। . तत्थ चुया मणुयत्ते उप्पज्जिय लहहि णिव्वाणं।। आज भी रत्नत्रय धारक मनुष्य आत्मा का ध्यानकर स्वर्गलोक को जाते हैं और वहां से च्युत होकर उत्तम मनुष्यकुल में उत्पन्न होकर निर्वाण को प्राप्त करते हैं । ।15।। मल रहिओ णाणमओ णिवसइ सिद्धीए जारिसो सिद्धो। तास्सिओ देहत्थो परमो बंभो मुणेयव्वो।। जैसा कर्ममल से रहित ज्ञानमय सिद्धात्मा सिद्धलोक में निवास करता है, वैसा ही परमब्रह्मस्वरूप अपना आत्मा देह में स्थित जानना चाहिये। 26 ।। सिद्धोऽहं शुद्धोहं अणंतणाणाइसमिद्धों हैं। देह पमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तो य।। (सिद्धोऽहं) मैं सिद्ध हूँ, मैं शुद्ध हूँ, मैं अनन्त ज्ञानादि से समृद्ध हूँ, मैं शरीर प्रमाण हूँ, मैं नित्य हूँ, मैं असंख्य प्रदेशी हूँ और अमूर्त हूँ।।28।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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