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जिनागम के अनमोल रत्न] रहित) व्यक्ति को ही पुण्य की प्राप्ति होती है। ऐसा जानकर हे यतीश्वरो! पुण्य में भी आदर भाव मत रखो। 412 ।।
जो जिण सत्थं सेवदि पंडिय माणी-फलं समीहंतो। साहम्मिय पडिकूलो सत्थं वि विसं हवे तस्स।।
जो पण्डिताभिमानी लौकिक फल की इच्छा रखकर जिन शास्त्रों की सेवा करता है और साधर्मीजनों के प्रतिकूल रहता है, उसका शास्त्रज्ञान भी विषरूप है।।463।।
परमध्यान आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर अपनी आत्मा में मन को लय करके आत्मसुख स्वरूप परम ध्यान का चिन्तन करना चाहिये। परमध्यान ही वीतराग परमानन्द सुखस्वरूप है, परमध्यान ही निश्चय मोक्षमार्ग स्वरूप हैं। परमध्यान ही शुद्धात्मस्वरूप है, परम ध्यान ही परमात्मस्वरूप है, एकदेश शुद्ध निश्चय नय से अपनी शुद्ध आत्मा के ज्ञान से उत्पन्न हुए सुखरूपी अमृत के सरोवर में राग आदि मल से रहित होने के कारण परमध्यान ही परमहंस स्वरूप है। परमध्यान ही परम विष्णु स्वरूप है, परम ध्यान ही परम शिवस्वरूप है, परम ध्यान ही परम बुधस्वरूप है, परम ध्यान ही परम जिनस्वरूप है, परम ध्यान ही स्वात्मोपलब्धि लक्षणरूप सिद्धस्वरूप है। परम ध्यान ही निरंजन स्वरूप है, परमध्यान ही निर्मलस्वरूप है, परम ध्यान ही स्वसंवेदन ज्ञान है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मदर्शन है, परमध्यान ही परमात्मदर्शनरूप है। परमध्यान ही ध्येयभूत शुद्ध पारिणामिक भाव स्वरूप है, परम ध्यान ही शुद्ध चारित्र है, परमध्यान ही अत्यन्त पवित्र है, परमध्यान ही परमतत्व है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मद्रव्य है, क्योंकि वह शुद्ध आत्मद्रव्य की उपलब्धि का कारण है। परमध्यान ही उत्कृष्ट ज्योति है, परमध्यान ही शुद्ध आत्मानुभूति है, परमध्यान ही आत्मप्रतीति है, परमध्यान ही आत्मसंवित्ति है, परमध्यान ही उत्कृष्ट समाधि है, परमध्यान ही स्वरूप की उपलब्धि में कारण होने से