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[जिनागम के अनमोल रत्न तं तस्स तम्मि देसे तेण विहाणेण तम्मि कालम्मि। को सक्कदि वारेदुं इंदो वा तह जिणिंदो वा।। एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्व पज्जाए। सो सद्दिट्ठो सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी।।
सम्यग्दृष्टि विचारता है-जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना है; उस जीव के, उसी देश में उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है, उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टाल सकने में समर्थ है?
इस प्रकार जो निश्चय से सब द्रव्यों को और सब पर्यायों को जानता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो उसके अस्तित्व में शंका करता है वह मिथ्यादृष्टि है।।321-322-323।।
रयणाण महा-रयणं सब्बं जोयाण उत्तमं जोयं। . रिद्धीण महा-रिद्धी सम्मत्तं सब्ब-सिद्धियरं ।।
सम्यक्त्व सब रत्नों में महारत्न है, सब योगों में उत्तम योग है, सब ऋद्धियों में महाऋद्धि है, अधिक क्या, सम्यक्त्व सब सिद्धियों का करने वाला है। 325 ।।
बाहिर-गंथ-बिहीणा दलिई-मणुवा सहावदो होंति। अब्भंतर गंथं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदुं ।।
बाह्य परिग्रह से रहित दरिद्री मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं, किन्तु अन्तरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई भी समर्थ नहीं होता।।387 ।।
पुण्णासाएं ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्ण सम्पत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि म आवरं कुणह।। पुण्य की इच्छा करने से पुण्य बन्ध नहीं होता, बल्कि निरीह (इच्छा