________________
जिनागम के अनमोल रत्न]
- [115 (16) कार्तिकेयानुप्रेक्षा जो लक्ष्मी पुण्य के उदय वाले चक्रवर्तियों के भी नित्य नहीं है, वह पुण्यहीन अथवा अल्प पुण्य वाले अन्य लोगों से कैसे प्रेम करे? ।।10।।
यह लक्ष्मी कुलवान, धैर्यवान, पण्डित, सुभट, पूज्य, धर्मात्मा, रूपवान, सुजन, महापराक्रमी इत्यादि किसी भी पुरूष से प्रेम नहीं करती है।।11।।
जो पुरूष लक्ष्मी को संचय करके बहुत नीचे जमीन में गाड़ता है वह पुरूष उस लक्ष्मी को पत्थर के समान करता है।।14।।
जो पुरूष लक्ष्मी को निरन्तर संचित करता है, न दान देता है, न भोगता है, उसके अपनी लक्ष्मी भी पर की लक्ष्मी के समान है।।15।।
मनुष्य को विरक्त करने के लिये विधि ने मनुष्य के शरीर को अपवित्र बनाया है ऐसा प्रतीत होता है, किन्तु वे उसी में अनुरक्त हैं।।85 ।।
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरूषों में भी दोष ग्रहण करने का स्वभाव तथा बहुत समय तक बैर धारण करने का स्वभाव तथा बहुत समय तक बैर धारण करना-ये तीव्र कषाय के लक्षण हैं ।।92 ।।
जैसे चौराहे पर पड़ा हुआ रत्न हाथ आना बहुत दुर्लभ है वैसे ही मनुष्य भव प्राप्त करना अति दुर्लभ है। ऐसा दुर्लभ शरीर पाकर भी मिथ्यादृष्टि होकर जीव पाप ही करता है। 290 ।।
गिण्हदि मुंचदि जीवो वे सम्मत्ते असंख-बाराओ। पढम-कषाय-विणासं देस-वयं कुणदि न उक्कस्सं।।
उत्कृष्ट से यह जीव औपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धी का विसंयोजन और देशव्रत इनको असंख्यात बार ग्रहण करता और छोड़ता है इसके बाद मुक्त हो जाता है।।310।।
जं जस्स जम्मि देसे जेण बिहाणेण जम्मि कालम्मि। णादं जिणेण णियदं जम्मं वा अहव मरणं वा।।