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[जिनागम के अनमोल रत्न (15) सुभाषित रत्न संदोह श्रुति (शास्त्रज्ञान), बुद्धि, बल, वीर्य, प्रेम, सुन्दरता, आयु, शरीर, कुटुम्बीजन, पुत्र, स्त्री, भाई और पिता आदि सब ही चालनी में स्थित पानी के समान अस्थिर है-देखते-देखते ही नष्ट हो जाते हैं। इस बात को प्राणी देखता है, तो भी खेद की बात है कि वह मोहवश आत्मकल्याण को नहीं करता।।1-18।।
जो प्राणी लोभ के वश होकर धन को प्राप्त करना चाहता है वह यदि पुण्यहीन है तो, प्रथम तो उसे वह धन इच्छानुसार प्राप्त ही नहीं होता, फिर यदि वह प्राप्त भी हो गया तो उसके पास स्थिर नहीं रहता, और यदि स्थिर भी रह गया तो वह चिन्ता या रोगादिक से सहित होने के कारण उसको सुख देने वाला नहीं होता, ऐसा विचार करके निर्मल बुद्धि मनुष्य उस लोभ को विस्तृत नहीं करते।।4-16।।
प्राणों के संहारक विष का भक्षण करना अच्छा है, व्याघ्रादि हिंसक जीवों से व्याप्त वन में रहना अच्छा है, तथा अग्नि की ज्वाला में प्रवेश करना भी अच्छा है; परन्तु मनुष्य का मिथ्यात्व के साथ जीवित रहना अच्छा नहीं है। 7-13।।
वरं निवासो नरकेऽपि देहिनां विशुद्धसम्यक्त्व विभूषितात्मनाम्। दुरन्त मिथ्यात्व विषोपभोगिनां न देवलोके वसतिर्विराजते।। ___ अपनी आत्मा को निर्मल सम्यग्दर्शन से विभूषित करके प्राणियों का नरक में रहना अच्छा है, परन्तु कठिनता से नष्ट होने वाले मिथ्यात्वरूप विष का उपभोग करते हुए स्वर्ग में रहना भी अच्छा नहीं है।।7-41 ।।
जो ज्ञान से शून्य होता है वह कोरा पशु ही होता है, क्योंकि जैसे पशु धर्म-अर्थ-काम पुरूषार्थ सम्बन्धी व्यवहारों को नहीं जानता, वैसे ही वह भी उनसे अनभिज्ञ रहता है, उनके विषय में यथेच्छ प्रवृत्ति करता है। पशु के