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जिनागम के अनमोल रत्न] समान ही उसकी समस्त विचारशील बुद्धि नष्ट हो जाती है, और वह दिनरात पशु की तरह ही खाने-पीने में लगा रहता है। उसे भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक भी नहीं रहता।।8-17 ।।
वरं विषं भक्षितमुग्रदोषं वरं प्रविष्टं ज्वलनेऽतिरौदे। वरंकृतान्ताय निवेदितं स्वंनजीवितं तत्त्वविवेकमुक्तम्॥
ज्ञान प्राप्ति के लिये कितने भी संकट आयें, कदाचित् भयंकर हलाहल विष खाने का भी प्रसंग आवे तो अच्छा अथवा भयंकर अतिरूद्र अटवी में प्रवेश करने का भी प्रसंग आवे तो अच्छा, अग्नि में जलकर भस्मसात हो जाना अच्छा, अथवा अन्त में अन्य भी किसी कारण से यमराज की गोद में चला जाना अच्छा, परन्तु तत्त्वज्ञान से रहित होकर जीना इस संसार में अच्छा नहीं है। ज्ञानहीन जीवन इन भयंकर दुखों से भी महान दुख है।।8-24।।
जिनका जीवन चारित्र से हीन-रहित है, उसका इस लोक में जन्म लेकर माता के गर्भ में ही विलीन हो जाना अच्छा है अथवा जन्म लेकर प्रसूतिकाल में ही मर जाना अच्छा है अथवा उस शरीरधारी जीव का उत्पन्न न होना ही अच्छा है, परन्तु चारित्र रहित जीवन जीना निरर्थक है।।9-31 ।।
विधि-दैव-भाग्य भुजंग के समान टेढ़ा चलता है। कभी वैभव के शिखर पर चढ़ाता है तो कभी विपत्ति की खाई में गिराता है। आज श्रीमंत है तो कल दरिद्री बनकर घूमता है। जीवन पवनवेग की तरह चंचल है। धन कमाने में कष्ट, उसकी रक्षा में कष्ट, अंत में किसी कारण से धन का वियोग होता है तब इस जीव को महान कष्ट होता है। यौवन शीघ्र ही नष्टप्राय होता है, तथापि यह जीव संसार की नानाविध संकट परम्परा से भयभीत नहीं होता, यह महान आश्चर्य है।
यद्यपि इस संसार में जीवों को जो संपत्ति मिलती है वह विपत्तियों से सहित होती है। सुख के अनंतर दुख अपना स्थान जमाता है। सज्जनों की संगति वियोगरूपी विषदोष से दूषित है। शरीर रोग रूपी सर्प का बिल है।