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जिनागम के अनमोल रत्न]
[109 स्निग्धा मा मुनयो भवन्तु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजनं। मा किंचिद्धनमस्तु मा वपुरिदं रूग्वर्जितम् जायताम्। नग्नं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तमापि खेदो न ये। नित्यानन्दपदप्रदं गुरुवचो जागर्ति चेच्चोतसि।।
जब मैं मोक्ष विषयक उपदेश से बुद्धि की स्थिरता को प्राप्त कर लेता हूँ तब भले ही वर्षाकाल मेरे हर्ष को नष्ट करे, विस्तृत महान शैत्य शरीर को पीड़ित करे, घाम सुख का अपहरण करे, डांस-मच्छर क्लेश के कारण होवें, अथवा और भी बहुत से परीषहरूप सुभट मेरे मरण को भी प्रारम्भ कर दें, तो भी इनसे मुझे कुछ भी भय नहीं है। 23-13।।
जायन्ते बिरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं, शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरेऽपि च। — मौनं च प्रतिभासतेऽपि च रहः प्रायो मुमुक्षोश्चितः, चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मनः पञ्चताम्।।
चैतन्य स्वरूप आत्मा के चिन्तन से मुमुक्षुजन के रस नीरस हो जाते है, सम्मिलित होकर परस्पर चलने वाली कथाओं का कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रिय विषय विलीन हो जाते हैं, शरीर के भी विषय में प्रेम का अन्त हो जाता है, एकान्त में मौन प्रतिभाप्ति होता है, तथा वैसी अवस्था में दोषों के साथ मन भी मरने की इच्छा करता है। 23-19।।
चित्त में पूर्व के करोड़ों भवों में संचित हुए पाप कर्मरूप धूलि के सम्बन्ध से प्रगट होने वाले मिथ्यात्व आदि रूप मल को नष्ट करने वाली जो विवेक बुद्धि उत्पन्न होती है वही वास्तव में साधुजनों का स्नान है। 25-3।।
हे भव्य ! जब स्फटिक मणि की जिनमूर्ति के समान अन्तर में अपने | शुद्धात्मा को तू भायेगा तब कर्मजाल स्वयमेव क्षण में ही कट जायेंगे और आत्मभावों में तू परिशुद्ध हो जायेगा। - श्री नेमिश्वर वचनामृत ।