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________________ 108] [जिनागम के अनमोल रत्न रहता है; किन्तु जो उसे मुक्त देखता है वह मुक्त हो जाता है। ठीक है-पथिक जिस नगर के मार्ग से जाता है उसी नगर को वह प्राप्त होता है।।11-48।। ___यदि मेरे मन में समस्त इच्छाओं के अभावरूप अनुपम स्वरूप वाला उत्कृष्ट आत्मतत्त्व स्थित है तो फिर राजलक्ष्मी तृण के समान तुच्छ है। उसके विषय में तो क्या कहूँ? किन्तु मुझे तो तब इन्द्र की सम्पत्ति से भी कुछ प्रयोजन नहीं है।n1-62।। यद्यपि यौवन एवं सौन्दर्य से परिपूर्ण स्त्रियों का शरीर आभूषणों से विभूषित है तो भी वह मूर्खजनों के लिये ही आनन्द को उत्पन्न करता है, न कि सज्जनों के लिये। ठीक है-बहुत से सड़े-गले मृत शरीरों से अतिशय व्याप्त शमशानभूमि को पाकर काले कौओं का समुदाय ही सन्तुष्ट होता है, न कि राजहंसों का समूह ।।12-14।। हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होने पर मेरा अन्तःकरण ऐसे उत्कृष्ट आनन्द से परिपूर्ण हो गया है कि जिससे मैं अपने को मुक्ति को प्राप्त हुआ ही समझता हूँ।14-3।। हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होने पर मुझे ऐसा उत्कृष्ट सन्तोष उत्पन्न हुआ है कि जिससे मेरे हृदय में इन्द्र का वैभव भी लेशमात्र तृष्णा को उत्पन्न नहीं करता है।।14-7।। हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होने पर शेष सब ही दिनों के मध्य में आज के दिन सफलता का पट्ट बांधा गया है। 14-11।। यदि मेरे हृदय में नित्य आनन्दपद अर्थात् मोक्षपद को देने वाली गुरु की वाणी जागती है, तो मुनिजन स्नेह करने वाले भले ही न हों, गृहस्थ जन यदि भोजन नहीं देते हैं तो न दें, मेरे पास कुछ भी धन न हो, यह शरीर रोग से रहित न हो, तथा मुझे नग्न देखकर लोग निन्दा भी करें; तो भी मेरे लिये उसमें कुछ भी खेद नहीं होता।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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