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जिनागम के अनमोल रत्न]
[107 उस गृहस्थाश्रमरूपी पत्थर की नाव पर बैठकर मनुष्य संसार रूपी समुद्र में डूबता ही है, इसमें सन्देह नहीं है।।6-35।।
विशेषार्थ-यदि निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव एक भी हो तो वह प्रशंसा के योग्य है। किन्तु मिथ्यामार्ग में प्रवृत्त हुए प्राणी संख्या में यदि अधिक भी हो तो भी वे प्रशंसनीय नहीं है-निन्दनीय ही हैं। निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव का पाप कर्म के उदय से वर्तमान में दुखी रहना भी उतना हानिकारक नहीं है, जितना कि मिथ्यादृष्टि जीव का पुण्यकर्म के उदय से वर्तमान में सुख से स्थित रहना भी हानिकारक है।।7-2।। ___जो भव्य जीव भक्ति से कुंदुरु के पत्ते के बराबर जिनालय तथा जौ के बराबर जिनप्रतिमा का निर्माण कराते हैं उनके पुण्य का वर्णन करने के लिये यहां वाणी भी समर्थ नहीं है। फिर जो भव्य जीव उन दोनों का ही निर्माण करता है उसके विषय में क्या कहा जाये? ।।7-22 ।।
संसार में जो मूर्ख जन उत्तम आभ्यन्तर नेत्र से उस समीचीन सिद्धात्मारूप अद्वितीय तेज को नहीं देखते हैं वे ही यहां स्त्री एवं स्वर्ण आदि वस्तुओं को प्रिय मानते हैं। किन्तु जिनका हृदय उस सिद्धात्मारूप रस से परिपूर्ण हो चुका है उनके लिये समस्त साम्राज्य तृण के समान प्रतीत होता है, शरीर दूसरे का सा प्रतीत होता है, तथा भोग रोग के समान जान पड़ते हैं। 18-22 ।।
बाह्य शास्त्र गहने बिहारिणी या मतिर्बहुविकल्पधारिणी।
चित्स्वरूपकुलसद्मनिर्गता सा सती न सदृशी कुयोषिता।। - जो बुद्धिरूपी स्त्री बाह्य शास्त्ररूपी वन में घूमने वाली है, बहुत से विकल्पों को धारण करती है तथा चैतन्यरूपी कुलीन घर से निकल चुकी है, वह पतिव्रता के समान समीचीन नहीं है, किन्तु दुराचारिणी स्त्री के समान है। 10-38 ।।
जो जीव आत्मा को निरन्तर कर्म से बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही