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[जिनागम के अनमोल रत्न
इस कारण विद्वान मनुष्यों के द्वारा निश्चय से वही एक उत्कृष्ट आत्मतेज जानने के योग्य है, वही एक सुनने के योग्य है, तथा वही एक देखने के योग्य है; उससे भिन्न अन्य कुछ भी न जानने योग्य है, न सुनने योग्य है और न देखने के योग्य है ।।4-21 ।।
तत्प्रति प्रीति चित्तेन येन वार्तापि हि श्रुता । निश्चितं स भवेद्भव्यो भाविनिर्वाण भाजनम् ॥
उस आत्मतेज के प्रति प्रीति चित्त से जिसने उसकी बात भी सुनी है वह निश्चय से भव्य है व भविष्य में प्राप्त होने वाली मुक्ति का पात्र है । 14-23।। प्रमाद से रहित हुए मुनि का वही एक आत्मज्योति आचार है, वही आत्मज्योति आवश्यक क्रिया है, तथा वही आत्मज्योति स्वाध्याय भी है
114-41 ||
समस्त शास्त्ररूपी महासमुद्र का उत्कृष्ट रत्न वही एक आत्मज्योति है, तथा वही एक आत्मज्योति सब रमणीय पदार्थों में आगे स्थित अर्थात् श्रेष्ठ है । 14-43 ।।
शान्त और बर्फ के समान शीतल वही आत्मज्योति संसाररूपी भयानक घाम (धूप) से निरन्तर सन्ताप को प्राप्त हुए प्राणी के लिये यन्त्र धारागृह (फुब्बारों से युक्त शीतल घर) के समान आनन्ददायक है।।4-47 ।।
स्पृहा मोक्षेऽपि मोहोत्था तन्निषेधाय जायते । अन्यस्मै तत्कथं शान्ताः स्पृहयन्ति मुमुक्षवः ।।
मोह के उदय से उत्पन्न हुई मोक्ष प्राप्ति की भी अभिलाषा उस मोक्ष की प्राप्ति में रूकावट डालने वाली होती है, फिर भला शान्त मोक्षाभिलाषी जन दूसरी किस वस्तु की इच्छा करते हैं? अर्थात् किसी की भी नहीं करते ।।4-53 ।।
दान से रहित गृहस्थाश्रम को पत्थर की नाव के समान समझना चाहिये।