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जिनागम के अनमोल रत्न]
[105 मेरी आयु लम्बी है, हाथ-पांव आदि सभी अंग अतिशय दृढ़ हैं, तथा यह लक्ष्मी भी मेरे वश में है फिर मैं व्यर्थ में व्याकुल क्यों होऊं? उत्तरकाल में जब वृद्धावस्था प्राप्त होगी तब मैं निश्चिन्त होकर अतिशय धर्म करूंगा।
खेद है कि इस प्रकार विचार करते-करते यह मूर्ख प्राणी काल का ग्रास बन जाता है। 1-170।।
सज्जन पुरुष के लिये अपने पुत्र की मृत्यु का भी दिन उतना बाधक नहीं होता जितना कि मुनिदान से रहित दिन उसके लिये बाधक होता है ।।2-29 ।। ___ लोक में जिस कंजूस मनुष्य का शरीर भोग और दान से रहित ऐसे धनरूपी बन्धन से बंधा हुआ है उसके जीने का क्या प्रयोजन है? उसकी अपेक्षा तो वह कौआ ही अच्छा है जो उन्नत बहुत वचनों (कांव-कांव) के द्वारा अन्य कौओं को बुलाकर ही बलि (द्रव्य) को खाता है।।2-46 ।।
हे आत्मन्! तूने इच्छित लक्ष्मी को पा लिया है, समुद्र-पर्यन्त पृथिवी को भी भोग लिया है तथा जो विषय स्वर्ग में भी दुर्लभ हैं उन अतिशय मनोहर विषयों को भी प्राप्त कर लिया है। फिर भी यदि पीछे मृत्यु आने वाली है तो यह सब विष से संयुक्त आहार के समान अत्यन्त रमणीय होने पर भी धिक्कारने योग्य ही है। इसलिये तू एकमात्र मुक्ति की खोज कर ।।3-40।।
यह मनुष्य क्या बात रोगी है, क्या भूत-पिशाच आदि से गृहण किया गया है, क्या भ्रान्ति को प्राप्त हुआ है, अथवा वह पागल है? कारण कि वह 'जीवित आदि बिजली के समान चंचल है' इस बात को जानता है, देखता है, और सुनता भी है, तो भी अपने कार्य (आत्महित) को नहीं करता।।-40।।
केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तसुखस्वरूप जो वह उत्कृष्ट तेज है उसके जान लेने पर अन्य क्या नहीं जाना गया, उसके देख लेने पर अन्य क्या नहीं देखा गया तथा उसके सुन लेने पर अन्य क्या नहीं सुना गया?।।4-20।।