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[जिनागम के अनमोल रत्न
हम कहां जावें, क्या करें? यहां सुख कैसे प्राप्त हो सकता है और क्या होगा, लक्ष्मी कहां से प्राप्त हो सकती तथा इसके लिये कौन से सेवा की जाये; इत्यादि विकल्पों का समुदाय यहां तत्त्वज्ञ सज्जन पुरुषों के भी मन को जड़ बना देता है, यह शोचनीय है । यह सब मोह की महती लीला है।।1-122 ।।
हे पण्डितजन ! धन, महल और शरीर आदि के विषय ममत्व बुद्धि को छोड़कर शीघ्रता से कुछ भी अपना ऐसा कार्य करो जिससे कि यह जन्म फिर से न प्राप्त करना पड़े। दूसरे सैकड़ों वचनों के समारम्भ से तुम्हारा कोई भी अभीष्ट सिद्ध होने वाला नहीं है। यह जो तुम्हें उत्तम मनुष्य पर्याय आदि स्वहित साधक सामग्री प्राप्त हुई है वह फिर से प्राप्त हो सकेगी अथवा नहीं हो सकेगी, यह कुछ निश्चित नहीं है ।।1-123 ।।
नित्य आनन्दस्वरूप शुद्ध आत्मा का विचार करने पर रस नीरस हो जाते हैं, परस्पर के संसाररूप कथा का कौतूहल नष्ट हो जाता है, विषय नष्ट हो जाते हैं, शरीर के विषय में भी प्रेम नहीं रहता, वचन भी मौन को धारण कर लेते हैं, तथा मन दोषों के साथ मृत्यु को प्राप्त करना चाहता है ।।1-154।।
संसारी प्राणियों को यह मनुष्य पर्याय 'अन्धक-वर्तकीयक' रूप जनाख्यान के न्याय से करोड़ों कल्पकालों में बड़े कष्ट से प्राप्त हुई है, अर्थात् जिस प्रकार अन्धे मनुष्य के हाथों में वटेर पक्षी का आना दुर्लभ है, उसी प्रकार है इस मनुष्य पर्याय का प्राप्त होना भी अत्यन्त दुर्लभ है । फिर वह करोड़ों कल्पकालों में किसी प्रकार से प्राप्त भी हो गई तो वह मिथ्यादेव एवं मिथ्या गुरु के उपदेश, विषयानुराग और नीच कुल में उत्पत्ति आदि के द्वारा सहसा विफलता को प्राप्त हो जाती है ।।1-167 ।।
दुर्बुद्धि प्राणी ! यदि यहां जिस किसी भी प्रकार से तुझे मनुष्य जन्म प्राप्त हो गया है तो फिर प्रसंग पाकर अपना कार्य कर ले। अन्यथा यदि तू मरकर किसी तिर्यञ्च पर्याय को प्राप्त हुआ तो फिर तुझे समझाने के लिये कौन समर्थ होगा ? ।।1 - 168।।