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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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(14) पद्मनन्दि पंचविंशतिः
जब कि शय्या के निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण आदि भी मुनियों के लिये आर्त- रौद्र-स्वरूप दुर्ध्यान एवं पाप के कारण होकर उनकी निर्ग्रन्थता को नष्ट करते हैं, तब फिर गृहस्थ के योग्य अन्य स्वर्ण आदि क्या उस निर्ग्रन्थता के घातक न होंगे? अवश्य होंगे। फिर यदि वर्तमान में निर्ग्रन्थ कहे जाने वाले मुनियों के भी उपर्युक्त गृहस्थ योग्य स्वर्ण आदि परिग्रह रहता है तो समझना चाहिये प्रायः कलिकाल का प्रवेश हो चुका है । 11-53।।
यदि परिग्रह युक्त जीवों का कल्याण हो सकता है तो अग्नि भी शीतल हो सकती है, यदि इन्द्रिय-जन्य सुख वास्तविक सुख हो सकता है तो तीव्र विष भी अमृत बन सकता है, यदि शरीर स्थिर रह सकता है तो आकाश में उदित होने वाली बिजली उससे भी अधिक स्थिर हो सकती है तथा इस संसार में यदि रमणीयता हो सकती है तो वह इन्द्रजाल में भी हो सकती है ।।1-56।।
लोक में मिथ्यात्व आदि के निमित्त से जो तीव्र दुख प्राप्त होने वाला है उसकी अपेक्षा तप से उत्पन्न हुआ दुख इतना अल्प होता है जितनी कि समुद्र के सम्पूर्ण जल की अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है ।।1-100 ।।
काल के प्रभाव से जहां मोहरूप महान अन्धकार फैला हुआ है ऐसे इस लोक में मनुष्य उत्तम मार्ग नहीं देख पाता है। इसके अतिरिक्त नीच मिथ्यादृष्टि जन उसकी आँख में मिथ्या उपदेशरूप धूलि को भी फेंकते हैं । फिर भला ऐसी अवस्था में उसका गमन अनिश्चित खोटे मार्गों में कैसे नहीं होगा? अर्थात् अवश्य ही होगा।
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हत्यारा कामदेवरूपी घीवर उत्तम धर्मरूपी नदी से मनुष्यों रूप मछलियों को स्त्रीरूप कांटे के द्वारा निकालकर उन्हें अत्यंत जलने वाली अनुरागरूपी आग में पकाता है, यह बड़े खेद की बात है । 11-116।।