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[जिनागम के अनमोल रत्न
जिस दुख का क्षणभर भी स्मरण करना, देखना और सुनना भी शक्य नहीं है उस दुख को मैं यहाँ समुद्र के प्रमाण से अपरिमित रूप में कैसे - सह सकूंगा? ।।1733-1734।।
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जिन भृत्यादिकों के लिये मैंने अपने को ही नष्ट करने वाले महान् संकट में डालने वाले-कार्य को किया है, उनमें यहाँ न वे भृत्य दिखते हैं, न पुत्र दिखते हैं और न बन्धु भी दिखते हैं। स्त्रियां, मित्र और निर्लज्ज होकर मुझे पाप की ओर प्रेरित करने वाले अन्य जन भी इस समय मेरे साथ एक कदम भी नहीं आये हैं । 11737-1738।।
जिस प्रकार पक्षी किसी फलयुक्त वृक्ष को देखकर पहले तो उसका आश्रय लेते हैं और जब उसके फल समाप्त हो जाते हैं तब फिर उसको छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, उसी प्रकार कुटुम्बीजन भी जब तक उनका स्वार्थ सिद्ध होता है- तब तक रहते हैं और फिर उसकी सम्भावना न रहने पर छोड़कर चले जाते हैं-संचित पापकर्म का उदय आने पर प्राप्त हुए घोर दुख का सहभागी कोई भी नहीं होता है । 11739 ।।
मेरे द्वारा उपार्जित धन के फल का उपभोग करने वाले वे कुटुम्बीजन मुझे इस अचिन्त्य वेदना वाले अतिशय भयानक नरक में गिराकर अब इस समय कहां चले गये? ।।1747 ।।
एष देवः सः सर्वज्ञः सोऽहं तदूपतां गतः । तस्मात् स एव नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते ।।
यह देव (आत्मा) ही वह सर्वज्ञ है और वही मैं उस सर्वज्ञरूपता को प्राप्त हूँ। इसलिये वही सर्वज्ञ मैं हूँ, अन्य नहीं हूँ- ऐसा वह योगी मानता है । 2075 11
जैसे नमक पानी में विलीन हो जाता है, वैसे चित्त चैतन्य में विलीन होने पर जीव समरसी हो जाता है, समाधि में इसके सिवाय दूसरा क्या करना है ? मुनिवर रामसिंह · पाहुड दोहा, गाथा-176