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जिनागम के अनमोल रत्न]
जिस प्रकार स्वप्न में देखे गये शरीरादि के विनाश से आत्मा नष्ट नहीं होता, उसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी शरीरादि के विनाश के देखे जाने पर
भी आत्मा का विनाश नहीं होता-ऐसा समझना चाहिये।।1610।। . जो आगमरूप समुद्र का जल सरस्वती देवी के कुलग्रह के समान, विद्वज्जनों के आनन्द को वृद्धिंगत करने के लिये अनुपम चन्द्रोदय, मुक्ति का मुख्य मंगल, मोक्षमार्ग में प्रयाण की सूचना के लिये दिव्य भेरी जैसा, कुतत्त्वरूप हरिणों को नष्ट करने के लिये सिंह समान तथा भव्य जीवों को विनयशील बनाने में समर्थ है। उसका गुणीजन कर्णरूपी अंजुलियों के द्वारा पान करें। 1637।। ____ अब भी यदि मैं वैराग्य व विवेकरूप महापर्वत के शिखर से गिरता हूँ तो फिर संसाररूप अन्धकार युक्त कुएं के भीतर मेरा गिरना अनिवार्य ही हैउसे कोई रोक नहीं सकता है। 1644।।
पदार्थों का स्वरूप जैसा परमागम में कहा गया है, मैं उनका अनुभव उसी स्वरूप से कर रहा हूँ। इसलिये मैं मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो चुका हूँ, अब मुझे मोक्षपद प्राप्त हुआ सा ही प्रतीत होता है।।1655 ।। नारकी जीवों का पश्चाताप
मनुष्य पर्याय को पा करके जब मैं स्वतन्त्र था तब तो मैंने अपना हित किया नहीं। अब आज जब मैं यहाँ दैव और पुरुषार्थ दोनों से ही वंचित हूँ तब भला क्या अपना हित कर सकूँगा? कुछ भी नहीं।।1729 ।। ___ मैंने जो नगर, गांव और पर्वत आदि में आग लगाई है तथा जल, स्थल, विल और आकाश में संचार करने वाले प्राणियों का घात किया है, उन सब दुष्टतापूर्ण कृत्यों का जब स्मरण करता हूँ तब से सब पूर्व के कृत्य करोंत के समान निर्दयता पूर्वक मेरे मर्मों का छेदन करते हैं ।।1731-1732 ।।
दैव से ठगा गया मैं दीन प्राणी अब यहाँ पूर्व संचित कर्मसमूह के सामने उपस्थित होने पर क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किसकी शरण देखू।