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________________ [जिनागम के अनमोल रत्न जड़बुद्धि-आत्मा के स्वरूप को समझाने पर भी वह नहीं कहे हुए के समान उसे स्वीकार ही नहीं करता है । इस कारण उसके विषय में मेरा प्रयत्न करना व्यर्थ है ।।1580 ।। 100] जो कुछ में ज्ञापित करना चाहता हूँ - जिस आत्मा स्वरूप का मैं दूसरे के लिये ज्ञान कराना चाहता हूँ - वह मैं नहीं हूँ और जो मैं हूँ वह पर के द्वारा ग्राह्य नहीं है-वह मेरे द्वारा ही ग्रहण करने योग्य है, पर के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है । इसलिये दूसरे को प्रबोधित करने का मेरा प्रयत्न व्यर्थ है ।।1581 ।। आत्मा का अपने में अपने ही द्वारा शरीर से भिन्न इस प्रकार चिन्तन करना चाहिये कि जिस प्रकार से यह आत्मा स्वप्न में भी उस शरीर के साथ फिर से संयोग को प्राप्त न हो सके उसका उस शरीर से सम्बन्ध ही सर्वथा छूट जाये।।1598 ।। चूँकि व्रत और अव्रत ये दोनों क्रम से जीवों के पुण्य और पाप के कारण हैं तथा उन दोनों का अभाव ही मोक्ष है; अतएव मोक्षाभिलाषी प्राणी को उन दोनों का व्रत और अव्रत का भी अभाव करना चाहिये ।।1599 ।। यह संसार चक्र स्त्रियों के आधार से चलता है। शरीर में आत्मा को देखने वाला बहिरात्मा चाहे वह जागता हो, चाहे पढ़ता हो-आगम का अभ्यासी भी हो तो भी वह मुक्त नहीं हो सकता है । परन्तु जिस अन्तरात्मा को शरीर से भिन्न अपने में ही आत्मा का निश्चय उत्पन्न हो चुका है, वह यदि सोया हुआ या उन्मादयुक्त हो तो भी मुक्ति को प्राप्त कर लेता है ।। जीव सिद्धात्मा की आराधना करके स्वयं अपने को भी सिद्धात्मा बना लेता है, जिस प्रकार बत्ती दीपक को पाकर स्वयं भी दीपक स्वरूप बन जाती है। जिस प्रकार वृक्ष अपना अपने साथ घर्षण करके अग्नि बन जाता है, उसी प्रकार जीव अपना ही आराधन करके परमात्मा बन जाता है।।1605 से 1607 ।।
SR No.007161
Book TitleJinagam Ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajkumar Jain, Mukesh Shastri
PublisherKundkund Sahtiya Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages234
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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