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जिनागम के अनमोल रत्न]
[99 यः सिद्धात्मा परः सोऽहं योऽहं स परमेश्वरः। मदन्यो न मयोपास्यो मदन्येत तु नाप्यहम् ।।
आकृष्य गोचर व्याघमुखादात्मानमात्मना। " स्वस्मिन्नहं स्थिरीभूतश्चिदानन्दमये स्वयम्।।
मैं वही परमात्मा हूँ, मैं वही परमात्मा हूँ, इस प्रकार निरन्तर अभ्यास करने वाला योगी उस संस्कार को दृढ़ ही करता है, जिससे वह अपने ही आत्मस्वरूप में अवस्थान को प्राप्त कर लेता है।
अज्ञानी के लिये जो-जो (इन्द्रियादि विषय) प्रीति के लिये होता है वही-वही दुख का स्थान है तथा जिस संयम व तप आदि के विषय में वह भयभीत होता है वही वस्तुतः आनन्द का स्थान है।
इन्द्रिय समूह के नियन्त्रित कर लेने से अन्तरात्मा के प्रसन्न हो जाने पर जो क्षणभर के लिये निजस्वरूप प्रतिभासित होता है वही स्वरूप परमात्मा का
... जो सिद्धपरमात्मा है वह मैं हूँ और जो मैं हूँ वह सिद्ध परमात्मा है। न मेरे द्वारा मुझसे भिन्न दूसरा कोई आराधनीय है और न मैं ही मुझसे भिन्न दूसरे के द्वारा आराधनीय हूँ। तात्पर्य यह है कि यथार्थ में मैं स्वयं परमात्मा हूँ, इसलिये मैं ही उपास्य और मैं ही उपासक हूँ-निश्चय से उन दोनों में कोई भेद नहीं है।
मैं अपने आपको अपने ही द्वारा इन्द्रियविषयरूप व्याघ्र के मुख से खींचकर चिदानन्द स्वरूप अपने आपमें ही स्वयं स्थिर हो गया हूँ।।1554 से 1558।।
जिस तत्त्व के आश्रय से भ्रम को अतिशय निर्मूल करके आत्मा का आत्मा में अवस्थान होता है उसी का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये, उसी का व्याख्यान करना चाहिये, उसी का आराधन करना चाहिये और उसी का चिन्तवन करना चाहिये। 1578 ।।