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[जिनागम के अनमोल रत्न
सकता है । इसलिये इस परमात्मा को जानने के लिये पहले अपने आत्मस्वरूप का निश्चय करना चाहिये ।।1513 ।।
मैं दूसरे विद्वानों के द्वारा प्रतिबोधित किया जाता हूँ तथा मैं अन्य जनों को प्रतिबोधित करता हूँ, इस प्रकार का जो विकल्प होता है वह विपरीत बुद्धि का स्थान है - अज्ञानता से परिपूर्ण है । इसका कारण यह है कि मैं यथार्थतः इस बोध्य-बोधक भाव की कल्पना से रहित हूँ ।।1538 ।।
जिसके स्वरूप का बोध न होने पर मैं सोया था, तथा अब जिसका बोध हो जाने पर मैं उठ गया हूँ-वह स्व-स्वरूप मैं, अतीन्द्रिय होकर केवल स्वसंवेदन से ही गम्य हूँ।।1543 ।।
इतः प्रभृति निःशेषं पूर्वं पूर्वं विचेष्टितम् । ममाद्य् ज्ञाततत्त्वस्य भाति स्वप्नेन्द्रजालवत् ।। आज जब मुझे वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो चुका है, तब इस समय से लेकर पूर्व में मैंने जो भी प्रवृत्ति की है वह सब मुझे स्वप्न अथवा इन्द्रजाल के समान प्रतीत हो रही है । 11546 ।।
विशिष्ट ज्ञानरूप दीपक के द्वारा समस्त विश्व का अवलोकन करने वाले ऐसे मेरे रहते हुए यह बेचारा दीन प्राणी संसाररूप कीचड़ में क्यों निमग्न हो रहा है? ।।1552 ।।
स एवाहं स एवाहमित्यभ्यस्यन्ननारतम् । वासना दढयन्नेव प्राप्नोत्यात्मन्यवस्थितिम् ।।
तत्तदेवापदास्पदम् ।
स्याद्यद्यत्प्रीतयेऽज्ञस्य विभेत्ययं पुनर्यस्मिंस्तदेवानन्द मन्दिरम् ।। सुसंवृतेन्द्रियग्रामे प्रसन्ने
चान्तरात्यनि ।
क्षणं स्फुरति यत्तत्त्वं तद्रूपं
परमेष्ठिनः ।।