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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
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वह प्रवृत्ति भी क्षण-क्षण घटती जाएगी, होऊँ अन्त में निजस्वरूप में लीन जब ॥५॥ पञ्च विषय में राग-द्वेष कुछ हो नहीं, अरु प्रमाद से होय न मन को क्षोभ जब। द्रव्य-क्षेत्र अरु काल-भाव प्रतिबन्ध बिन, वीतलोभ को विचरूँ उदयाधीन जब॥६॥ क्रोध भाव के प्रति हो क्रोध स्वभावता, मान भाव प्रति दीनभावमय मान जब। माया के प्रति माया साक्षी भाव की, लोभ भाव प्रति हो निर्लोभ समान जब॥७॥ -बहु-उपसर्ग कर्ता के प्रति भी क्रोध नहिं, वन्दे चक्री तो भी मान न होय जब। देह जाय पर माया नहिं हो रोम में, लोभ नहिं हो प्रबल सिद्धि निदान जब ॥८॥ नग्नभाव मुंडभावसहित अस्नानता, अदन्तधोवन आदि परम प्रसिद्ध जब। केश-रोम-नख आदि अङ्ग शृङ्गार नहिं, द्रव्य-भाव संयममय निर्ग्रन्थ-सिद्ध जब ॥९॥ शत्रु-मित्र के प्रति वर्ते समदर्शिता, मान-अमान में वर्ते ही स्वभाव जब। जन्म-मरण में हो नहिं न्यून-अधिकता, भव-मुक्ति में भी वर्ते समभाव जब॥१०॥ एकाकी विचरूँगा जब शमशान में, गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब।