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परिशिष्ट
अपूर्व अवसर.... अपूर्व अवसर ऐसा किस दिन आयेगा, कब होऊँगा बाह्यान्तर निर्गन्थ जब। सम्बन्धों का बंधन तीक्षण छेद कर, विचरूँगा कब महत्पुरुष के पंथ जब ॥१॥ उदासीन वृत्ती हो सब परभाव से, यह तन केवल संयम हेतु होय जब। किसी हेतु से अन्य वस्तु चाहूँ नहीं, तन में किंचित भी मूर्छा नहिं होय जब॥२॥ दर्श मोह क्षय से उपजा है बोधं जो। तन से भिन्न मात्र चेतन का ज्ञान जब॥ चरित्र-मोह का क्षय जिससे हो जायेगा। वर्ते ऐसा निज स्वरूप का ध्यान जब ॥३॥ आत्मलीनता मन-वचन-काया योग की, मुख्यरूप से रही देह पर्यंत जब। भयकारी उपसर्ग परिषह हो महा, किन्तु न होवेगा स्थिरता का अन्त जब॥४॥ संयम ही के लिए योग की वृत्ति हो, निज आश्रय से, जिन आज्ञा अनुसार जब।