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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
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अडोल आसन और न मन में क्षोभ हो, जानें पाया परम मित्र संयोग जब ॥११॥ घोर तपश्चर्या में, तन सन्ताप नहिं, सरस अशन में भी हो नहीं प्रसन्न मन। रजकण या ऋद्धि वैमानिक देव की। सबमें भासे पुद्गल एक स्वभाव जब ॥१२॥ ऐसे प्राप्त करूँ जय चारित्रमोह पर, पाऊँगा तब करण अपूरव भाव जब। क्षायिकश्रेणी पर होऊँ आरूढ़ जब, अनन्य चिंतन अतिशय शुद्धस्वभाव जब॥१३॥ मोह स्वयंभूरमण उदधि को तैर कर, प्राप्त करूँगा क्षीणमोह गुणस्थान जब। अन्य समय में पूर्णरूप वीतराग हो,. प्रगटाऊँ निज केवलज्ञान निधान जब ॥१४॥ चार घातिया कर्मों का क्षय हो जहाँ, हो भवतरु का बीज समूल विनाश जब। सकल ज्ञेय का ज्ञाता-दृष्टा मात्र हो, कृत्यकृत्य प्रभु वीर्य अनन्त प्रकाश जब ॥१५॥ चार अघाति कर्म जहाँ वर्ते प्रभो, जली जेवरीवत् हो आकृति मात्र जब। जिनकी स्थिति आयु कर्म आधीन है, । आयुपूर्ण हो तो मिटता तन-पात्र जब ॥१६॥ मन-वच-काया अरु कर्मों की वर्गणा, जहाँ छूटे सकल पुद्गल सम्बन्ध जब।