SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 14 अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह - आत्मभ्रान्ति से दुःख हो, आत्म-ज्ञान से शान्त। इस बिन शान्ति न हो भले, कर ले तप दुर्दान्त॥४१॥ तन तन्मय ही चाहता, सुन्दर-तन सुर-भोग। ज्ञानी चाहे छूटना, विषय-भोग संयोग ।। ४२ ।। स्व से च्युत, पर-मुग्ध नर, बँधता, पर-सङ्ग आप। पर से च्युत, निज-मुग्ध बुध, हरे कर्म-सन्ताप॥४३॥ दिखते त्रय तन चिह्न को, मूढ़ कहे निजरूप। ज्ञानी मानें आपको, वचन बिना चिद्रूप॥४४॥ आत्मविज्ञ यद्यपि गिने, जाने तन-जिय भिन्न। पर विभ्रम संस्कारवश, पड़े भ्राँति में खिन्न॥ ४५ ॥ जो दिखते चेतन नहीं, चेतन गोचर नाहिं। रोष-तोष किससे करूँ, हूँ तटस्थ निज माँहि ॥ ४६॥ बाहर से मोही करे, अन्दर अन्तर-आत्म। दृढ़ अनुभववाला नहीं, करे ग्रहण और त्याग ।। ४७॥ जोड़े मन सङ्ग आत्मा, वचन-काय से मुक्त। वचन-काय व्यवहार में, जोड़े न मन, हो मुक्त॥४८॥ मूढ़ रति पर में करे, धरे जगत् विश्वास। स्वात्म-दृष्टि कैसे करे?, जग में रति विश्वास ॥४९॥ आत्मज्ञान बिन कार्य कुछ, मन में थिर नहीं होय। कारणवश यदि कुछ करे, अनासक्ति वहाँ जोय ॥५०॥ इन्द्रिय से जो कुछ प्रगट, मम स्वरूप है नाहिं। 'मैं हूँ आनन्द ज्योति प्रभु', भासे अन्दर माँहि ॥५१॥
SR No.007156
Book TitleAdhyatma Tri Path Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year2010
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy