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अध्यात्म त्रि-पाठ संग्रह
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इन्द्रिय विषय विरक्त हो, स्थिर हो निज में आत्म। उस क्षण जो अनुभव वही, है निश्चय परमात्म॥३०॥ मैं ही वह परमात्म हूँ, हूँ निज अनुभवगम्य। मैं उपास्य अपना स्वयं, निश्चय है नहीं अन्य ॥३१॥ निज में स्थित निज आत्म कर, कर मन विषायातीत। पाता निजबल आत्म वह, परमानन्द पुनीत ॥३२॥ तन से भिन्न-गिने नहीं, अव्ययरूप निजात्म। करे उग्र तप मोक्ष नहीं, जब तक लखे न आत्म॥३३॥ भेदज्ञान बल है जहाँ, प्रगट आत्म आह्लाद। हो तप दुष्कर घोर पर, होता नहीं विषाद॥ ३४॥ चञ्चल चित्त लहे न जब, राग रु द्वेष हिलोर। आत्म-तत्त्व वह ही लखे, नहीं क्षुब्ध नर ओर॥ ३५॥ निश्चल मन ही तत्त्व है, चञ्चलता निज-भ्रान्ति। स्थिर में स्थिरता राखि तज, अस्थिर मूल अशान्ति ॥३६॥ हों संस्कार अज्ञानमय, निश्चय हो मन भ्रान्त। ज्ञान संस्कृत मन करे, स्वयं तत्त्व विश्रान्ति ॥ ३७॥ चञ्चल-मन गिनता सदा, मान और अपमान। निश्चल-मन देता नहीं, तिरस्कार पर ध्यान ॥ ३८॥ मोह-दृष्टि से जब जगे, मुनि को राग रु द्वेष। स्वस्थ-भावना आत्म से, मिटे क्षणिक उद्वेग॥३९॥ हे मुनि! तन से प्रेम यदि, धारो भेद-विज्ञान। चिन्मय-तन से प्रेम कर, तजो प्रेम अज्ञान॥ ४०॥