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अध्यात्म त्रि--पाठ संग्रह
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बाहर सुख भासे प्रथम, दुःख भासे निज माँहि। बाहर दुःख, निजमाँहि सुख, भासे अनुभवी माँहि ॥५२॥ कथन पृच्छना, कामना, तत्परता बढ़ जाय। ज्ञानमय हो परिणमन, मिथ्याबुद्धि नशाय ॥५३॥ तन-वच तन्मय मूढ चित, जुड़े वचन-तन संग। भ्रान्ति रहित तन-वचन में, चित को गिने असंग॥५४॥ इन्द्रिय-विषयों में न कुछ, आत्म-लाभ की बात। तो भी मूढ़ अज्ञानवश, रमता इनके साथ॥५५॥ मोही मुग्ध कुयोनि में, है अनादि से सुप्त। जागे तो पर को गिने आत्मा होकर मुग्ध ॥५६॥ हो सुव्यवस्थित आत्म में, निज काया जड़ जान। पर काया में भी करे, जड़ की ही पहिचान॥५७॥ कहूँ ना कहूँ मूढजन, नहीं जाने निजरूप। समझाने का श्रम वृथा, खोना समय अनूप॥५८॥ समझाना चाहूँ जिस, वह नहीं मेरा अर्थ । नहीं अन्य से ग्राह्य मैं, क्यों समझाऊँ व्यर्थ ?॥ ५९॥ आवृत अन्तर ज्योति हो, बाह्य विषय, में तुष्ट। जागृत जग-कौतुक तजे, अन्दर से सन्तुष्ट ॥६०॥ काया को होती नहीं, सुख-दुःख की अनुभूति। पोषण-शोषण यत्न से, करते व्यर्थ कुबुद्धि ॥६१॥ 'हैं मेरे मन-वचन-तन' - यही बुद्धि संसार। इनके भेद-अभ्यास से, होते भविजन पार ॥ ६२॥