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जिज्ञासा - १४. - सम्यक्त्वाचरण (मोक्षपाहुड गाथा ५ से १०) एवं स्वरूपाचरण चारित्र में क्या अंतर है?
समाधान- स्वरूपाचरण चारित्र नामक चारित्र का वर्णन किसी भी आचार्य ने नहीं किया । यह तो पंचाध्यायीकार पाण्डे राजमलजी की कल्पना मात्र है । आ. कुंदकुंद ने चारित्रपाहुड गाथा ५ से १० तक जो सम्यक्त्वाचरण चारित्र का वर्णन किया है। उसका संबंध सम्यक् चारित्र से बिलकुल नहीं है । आ. कुंदकुंद ने २५ दोषों से रहित और अष्ट अंग से सहित सम्यग्दर्शन को धारण करना सम्यक्त्वाचरण चारित्र कहा है। सम्यक् चारित्र को संयमाचरण चारित्र नाम से अलग कहा है। इस संयमाचरण चारित्र को धारण करने वाला ही मोक्षमार्गी कहलाता है । जिसके पास सम्यक्त्वाचरण चारित्र नहीं है, उसके पास सम्यग्दर्शन भी नहीं है ऐसा समझना चाहिए । शास्त्रों में स्वरूपाचरण चारित्र नामक चारित्र तो नहीं कहा पर परमात्मप्रकाश गाथा
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२- ३९ की टीका में ऐसा जरूर कहा है -
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द्वेषमं यथाख्यातरूपं स्वरूपेचरणं निश्चयचारित्रं भणति । इदानीं तदभावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः ॥ '
अर्थ - रागद्वेष का अभाव जिसका लक्षण है ऐसा परम यथाख्यातरूप स्वरूप में आचरण निश्चयचारित्र है। वर्तमान में उसका अभाव होने से मुनिगण अन्य चारित्र का आचरण करें।
सम्यक्त्वाचरण तो चतुर्थ गुणस्थान में होता है परंतु स्वरूपं में आचरण रूप चारित्र तो ग्यारहवें गुणस्थान में कहा गया है, जैसा ऊपर प्रमाण है । सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के साथसाथ उसके अनुकूल आचरण भी होने लगता है। वही सम्यक्त्वाचरण कहा गया है।
जिज्ञासा १५.- मोक्षमार्ग में प्रगट होने वाला संवर- निर्जरा तत्त्व क्या शुभभाव रूप भी है या वीतराग भाव / शुद्धभाव रूप हो है ?
समाधान- मोक्षमार्ग में प्रगट होने वाला संवर, निर्जरा तत्त्व शुभभाव रूप भी है और रागभाव रूप भी है। श्री जय धवला पुस्तक १ पृष्ठ ६ पर इसप्रकार कहा है'सुहसुद्ध परिणामेहिं कम्मखया भावे तक्खयाणुववत्तीदो।'
अर्थ- यदि शुभ परिणामों और शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता ।
आ. वीरसेन महाराज तो धवला पुस्तक १३ पृष्ठ ८१ पर इसतरह घोषणा कर रहे हैं'मोहणीयविणास्ते पुण धम्मज्झाणंफलं, सुहुमसाम्परायचरिमसमए तस्स विणासुवलंभादो ॥ अर्थ- मोहनीय का नाश करना धर्म्यध्यान का फल हैं, क्यों कि सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान के अंतिम समय में उसका विनाश देखा जाता है। - श्री राजवार्तिक १-४-१८ में कहा है'पूर्वोक्तानामाश्रव द्वाराणां शुभपरिणामवशान्निरोधः संवराः ॥ ' अर्थ - पूर्वोक्त मिथ्यादर्शनादि आस्रव द्वारों का शुभ परिणामों के वश से निरोध होना संवर