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- मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने ९ वें अधिकार में स्पष्ट लिखा ह कि
'तातै अनंतानुबंधी के गये किछु कषायानि की मंदता तो हो है परंतु ऐसी मंदता न हो हैं, जाकरि कोऊ चारित्र नाम पावै .....जहाँ ऐसा कषायानि का घटना होय जाकरि श्रावकधर्म व मुनिधर्म का अंगीकार होय तहाँ ही चारित्र नाम पावै हैं। ...मिथ्यात्वादि असंयतपर्यंत गुणस्थानानि विषै असंयम नाम पावै है।'
यदि चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र का अंश माना जाय तो वहाँ चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव होना चाहिए। परंतु श्री षट्खण्डागम में स्पष्ट कहा है - 'असंजदं सम्माइट्ठित्ति को भावो, उवसमिओवा खइयो वा खओवसमिओ वा भावो॥५॥
ओदइएण भावेण पुणो असंजदो।' अर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि के कौनसा भाव है? औपशमिक भाव भी है,क्षायिक भाव भी है, और क्षायोपशमिक भाव भी है।।५।। असंयत सम्यग्दृष्टि का असंयत भाव औदयिक है। - राजवार्तिक-१-१ में इसप्रकार कहा है
सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्वात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीय।' अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोनों में से एक का आत्मलाभ होते, उत्तर जो चारित्र है वह भजनीय है। अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर सम्यक् चारित्र होना अवश्यंभावी नहीं है। -आचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण में कहा है
‘समेतमेव सम्यक्त्व ज्ञानाभ्यां चरितं मतम्।
स्यातां बिनापितेतेन गुणस्थाने चतुर्थके। ७४-५४३ अर्थ- सम्यक् चारित्र तो सम्यग्दर्शन व सम्यज्ञान सहित होता है किन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र के बिना होते हैं।
उपरोक्त प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि अविरत सम्यग्दृष्टि के सम्यक्चारित्र नहीं होता। और जब तक सम्यक्चारित्र नहीं तब तक मोक्षमार्गी भी नहीं है। . - जैसा कि प्रवचनसार गाथा २३६ की टीका में अमृतचंद्राचार्य ने कहा है
'अथ आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान संयतत्वानामयोगपद्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति॥' अर्थ-इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान तथा संयतत्व के अयुगपतत्व वाले के मोक्षमार्ग घटित नहीं होता। - मोक्षमार्ग प्रकाशक में पं. टोडरमलजी ने कहा है
'यहाँ प्रश्न जो असंयत सम्यग्दृष्टि के तो चारित्र नाहीं, वाकै मोक्षमार्ग भया है कि न भया है? ताका समाधान-मोक्ष याकै होसी, यह तो नियम भया। तातै उपचारतें याके मोक्षमार्ग भया भी कहिए। परमार्थ तें सम्यक्चारित्र भये ही मोक्षमार्ग हो है। ---- लैसे असंयत सम्यग्दृष्टि के वीतरागभाव रूप मोक्षमार्ग का श्रद्धान भया तातै वाको उपचारते मोक्षमार्गी कहिए। परमार्थ तें वीतरागभावरूप परिणमे ही मोक्षमार्ग होसी।'