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पंचम कालकी आदिमें हुए मुनिराजोंको अर्घ
(चौपाई - रूपक)
गौतमस्वामी सुधर्म जु स्वामी, जम्बूस्वामी अति वीर जिनेन्द्र पछै त्रय नामी, बासठ वर्ष मध्य पंचम काल आदिके मांहीं, केवलज्ञान लह्यो तिनको पूजों अर्घ चढाई, ता फल केवलज्ञान
अभिरामी ।
शिवगामी ॥१॥
सुखदाई ।
लहाई ॥२॥
ॐ ह्रीं वर्द्धमान- जिनेन्द्र - पश्चात् बासठ वर्ष मध्ये त्रय केवलज्ञान धारक मुनीश्वरेभ्योऽर्घ्यं नि०
भाई ।
यतिन्दा ॥३॥
विष्णुनन्दि मित्र मुनिराई, अपराजित गोवर्धन भद्रबाहु ये पंच मुनिन्दा, सब श्रुत धारक भये शत संवत्सरमें सुखदाई, तिनके चरण नमो मनलाई । वसु द्रव्यनि ले अर्घ बनाई, पूजत हों मैं मन वच काई ॥४॥
ॐ ह्रीं केवली-त्रय-पश्चात् - शत-वर्ष - मध्ये पंच श्रुत- केवलिभ्योऽर्घ्यं नि० विशाख प्रौष्ठिल क्षत्रिय जया, चारज नागसेन मुनि हुया । सिद्धारथ धृतसेन मुनीशा, विजय बुद्धिलिंग है यतीशा ॥ ५ ॥ अंगदेव धरसेन मुनिन्दा, चे दश पूरबधार इकसै तियासी बरस मझारा, पूजों मैं उतरे भव पारा ॥ ६ ॥
जु
यतिन्दा ।
ॐ ह्रीं विशाखाचार्यादि- श्रुतकेवलि - पश्चात् इकसौतियासी वर्षमध्ये दशपूर्वधारक एकादश मुनिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
कंसा ।
भंगा ॥७॥
नक्षत्राचारज जयपाल मुनीशा, पांडव ध्रुवसेनादिक चारज पंचएकादश अंगा, वन्दन करत पाप हो ये मुनि शत अरु वर्ष-तेईशा, मांहि भए गुणगणके पूजों कर ले अर्ध मुनीशा, सकल दोष क्षयकार गणीशा ॥ ८ ॥
ईशा ।
ॐ ह्रीं दशपूर्व - धारक - पश्चात् एक सौ तेईस वर्ष मध्ये एकादशांग - धारकमुनिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।