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[ ५९ ]
धन्य दिवस धनि वा घड़ी,
धनि मेरो तब भाग । अनुराग ॥
ऐसे मुनिवर के विषै, करै दान वे गुरु मो हिरदे बसो, तारन तरन जिहाज ॥१२॥
धन्य युगल पद होय तब, करे जात ऋषिराज ।
धन्य हृदय हो ध्यानतैं, ध्याऊं नित हित काज ॥ वे गुरु०॥१३॥
दरश करत तव चरणकी, चक्षु धन्य तब थाय ।
अफल करणयुग होय तब, वचन सुनै ऋषिराय || वे गुरु०॥१४॥
पूज करों तव चरणकी, करयुग धनि जब थाय ।
शीष धन्य तब ही हमें, नमत चरण ऋषिराय || वे गुरु० ||१५|| मो किंकरकी वीनती, सुनिये श्रीऋषिराज । भवदधि दुखमयतें मुझे, डूबत काढो बार बार विनती करूं, मन वच शीष पर-स्वरूप-मय हो रह्यो, मो निजरूप
आय ॥ वे गुरु०॥१६॥
नमाय ।
कराय || वे गुरु०॥१७॥
(घत्ता)
उर निज ध्याऊँ, शीश नमाऊँ, गाऊँ गुण मैं हो चेरा । पद अजरामर, सकल गुणाकर, द्यो मुनिवर हर भव - फेरा ॥ ॐ ह्रीं अक्षीण - महानस - ऋद्धि-धारक- सर्वमुनीश्वरेभ्यो जयमालार्धं निर्व०
(अडिल्ल छन्द)
अक्षीणमहानसऋद्धि-धार
जो ऋषि
ताके घरतें दुःख भार आपद ऋद्धि वृद्धि हो अखै सकल गुण सिद्धि केवलज्ञान
लहाय
अचल
समृद्धि
इत्याशीर्वादः
(इति अष्टम कोष्ठ पूजा )
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यजै,
भजै ।
हो,
हो ॥