________________
विष अमृत मुनि कर हो जाय, वचनामृतसम पुष्टि कराय ।
अमृतस्राविरसऋद्धि यही, ता घर पूजे हो शिव मही ॥६॥ ॐ ह्रीं अमृतस्रावि-रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा) ये रसऋधि के भेद · युत, सर्व ऋषीश्वर याय ।
मन वच तन करि पूजिहों, हरषित चित अधिकाय । ॐ ह्रीं आशीविष-रस-ऋद्धयादि-अमृतस्रावि-ऋद्धि-पर्यंतषट्रस-ऋद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(सवैया तेईसा) रसपरित्याग धर्यो मुनिराज, तिन्हें फल ये रसऋद्धि उपाई । अहार रसादिक त्याग करै, तिनके पद बन्दत शीष नवाई ॥ सो ऋषिराज करो हम काज, हरो अघसाज जु पुण्य बढाई । मन-वच-काय त्रिशुद्धि त्रिकाल, धरों तिनपाद सदा उरमाहीं ॥१॥
(ढाल वीर जिनन्दकी) दुष्ट कहैं मुनि राजकोजी, कर्कश वचन महान । अति कठोर कटु निंद्य. सुनजी क्रोध करै नहिं मान ॥
. ऋषीश्वर बसौ हृदयके मांहि ॥२॥ कुल जात्यादिक बुद्धिकोजी, तपको नहिं अभिमान । कोमल पर , करुणामयीजी, मार्दव धर्म महान ॥ऋषी०॥३॥ कूट कपट सब त्यागियोजी, रंच न हिरदा माहिं । यही आर्जव धर्म धरैजी, मन वच बन्दों ताहिं ॥ऋषी०॥४॥ हित मित सत्य जु वाक्यको जो, बोलतं वे मुनिराय । धर्मोपदेशतें अन्य कछुजी, बोलत नाहिं सुभाय ॥ऋषी०॥५॥
HERE