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[५४ लोभ सर्व तीनको गयोजी, धरि संतोष महान । शौच धर्म यह धारिकै जी, भए चित्त अमलान ।
ऋषीश्वर बसौ हृदयके मांहि ॥६॥ छहों कायके जीवकी जी, करुणा है अधिकाय । पांचों इन्द्रिय वश करी जी, संयम धरि चित लाय ॥ऋषी०॥७॥ द्वादश विधि तपको त4 जी, अन्तर बाह्य महान । ध्यावे निज चिद्रूपको जी, ध्यान सुधारस पान ॥ऋषी०॥८॥ सर्व परिग्रह त्याग कस्योजी, ज्ञानदान नित देय। जाति जीवको अभय दियोजी, त्याग धर्म धरि एव ।।ऋषी०॥९॥ बाह्य नग्नता अति लसैजी, अंतरंग अति शुद्ध । ममत तज्यो निज देहसो जी, आकिंचन व्रत इद्ध ॥ऋषी०॥१०॥ सहस अटारा शीलकोजी, पालत मन वच काय । बह्मचर्य ऐसो धरैजी, आतम में रति थाय ॥ऋषी०॥११॥ या विध दस परकारकोजी, जिनभाषित जो धर्म । ताहि शुद्ध धास्यो मुनीजी, मेटि पापके कर्म ॥ऋषी० ॥१२॥ ऐसे हम मुनिराजको जी, नमत शीष धरि हाथ । बांह पकरि भव-सिंधुतेजी, काढो मोको नाथ ॥ऋषी ॥१३॥ स्वरूप तिहारो हृदय विषैजी, धार्यो मन वच काय । भवसागर को भय मिट्योजो, यातें त्रिभुवनराय ॥ऋषी० ॥१४॥
(धत्ता) ऐसी गुणमाला परम रसाला जो भविजन कंठे धरई । हनि जर मरणावलि नाश भवावलि मुक्तिरमा वह नर वरई ॥ ॐ ह्रीं रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।