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[५२] जल सुगन्ध सुतन्दुल पुष्पकै, चरु सुदीप सुधूप फलार्घक । पद अनर्घ्य महाफल दायकं, मुनि यज़ामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।..
प्रत्येक पूजा .
(सोरठा) रस ऋद्धि षट् परकार, तिनकै धारक जे मुनी ।
रोग क्षुधादि निवार, पूजों अर्घ चढायकैं ॐ ह्रीं रस-ऋद्धि-धारक-षट् प्रकार सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
। (चौपाई) कर्म-उदै कोउ कारन पाय, क्रोध थकी मरि वच निकसाय ।
सो प्राणी ततकाल मराय, ते आशीविष यजन कराय ॥१॥ ॐ ह्रीं आशीविष-रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । क्रोध दृष्टि मुनिकी जो परै, पर ही तत्काल सो मरै ।
दृष्टिविषारसऋधिधर मुनी, यजन करो मैं तिनको गुनी ॥२॥ ॐ ह्रीं दृष्टिविष-रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
क्षीर रहित जहँ अहार जु कोय, सो मुनि कर रस दुग्ध जु होय । वचन दुग्ध सम पुष्टि कराय, क्षीरस्रावि-धर अरचों पाय ॥३॥ ॐ ह्रीं क्षीर-स्रावि-रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । मिष्ट रहित जो मुनि कर अहार, होय मिष्टरस सहित जु अहार ।
मुनि वच पुष्ट करत मधु समा, मधुस्रावी ऋधि पूजत हमां ॥४॥ ॐ ह्रीं मधुस्रावि-रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
घृत करि अहार करै मुनी, घृत-संयुक्त होय बहु गुनी ।
वच मुनिके घृतसम गुण करें, सर्पिस्रावि रस पूजन करें ॥५॥ ॐ ह्रीं सर्पिस्रावि-रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।