________________
[५१]
अष्टक
(सुन्दरी छन्द) विमल केवल उज्वल ल्यायकै, सुर नदी जल भृङ्ग भरायकै । जनम मृत्यु जरा क्षयकारणं, मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस - ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा । सहज कर्म-कलंक विनाशनै, मलय उद्भव गन्ध सुगन्धनै । कदल नन्दन कुंकुम वारिकं मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस - ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो चंदनं निर्वपामीति स्वाहा । अखित उज्वल दीर्घ अखंडकं, किरणचन्द समान सुद्योतकं ॥ अतुल सौख्य सुथानक दायकं, मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस - ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा । प्रचुर गन्ध सुपुष्प सुमालया, भ्रमर गुञ्जत सौरभ धारिया । निविड़ बाण मनोद्भव वारिकं मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस - ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । स्वर्ण पात्र भरै नैवेद्यके, घृत सुचारु रसादिक सज्यके । प्रचुर. रोग क्षुधादि निवारकं, मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । रतन दीप मनोज्ञ उद्योतकं, स्वर्णपात्र धरे शुभ ज्योतिकं । निरवधी सुविकास प्रकाशकं मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा । अगर चन्दन धूप सुधूपनै, अलि समूह भ्रमैति सुगन्धनै । कर्म - काष्ठ-समूह सुजारकं, मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस- ऋद्धि - धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा । सुभग मिष्ट मनोज्ञ फलावली, हरत प्राण सुचक्षु सुखावली । मुकति थान मनोहर दायकं, मुनि यजामि ऋद्धिरस धारकं ॥ ॐ ह्रीं रस - ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो फ़्लं निर्वपामीति स्वाहा ।
।