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[४९] कृष्ण सर्प तुम' नामतें लटसम हो. जाय, श्वान स्वाल अरु वृश्चिकको भय न रहाय, ऋषिवरजी ॥५॥ डायनि सायनि हो योगिनी ये दूर भजाय, भूत प्रेत ग्रह दुष्टजु हो तुरत नसाय, ऋषिवरजी । तुम नाम मंत्रतै हो अगनि-झल जलसम हो जाय, सिंधु भयानक जी थलसम थाय, ऋषिवरजी ॥६॥ हृदय-कमल में जी तुम नामको जो ध्यान कराय, नृप-भय ताकै जी होवे कछु नाय, ऋषिवरजी । विघ्न अनेक जु जी नाश हो शुभ मंगल थाय, जो ध्यावै जी मन वच काय, ऋषिवरजी ॥७॥ सर्वोषधिऋद्धिधार जी जहँ करत विहार, दुरभिक्ष रहै नहीं जी ता देश मझार, ऋषिवरजी । आदि व्याधि भय देश के सब ही मिट जाय, सब जीवों के जी अति सुख थाय, ऋषिवर्जी ॥८॥ वह मुनि जा बनके विर्षे शुभ ध्यान करात, जाति-विरोध हो सब बैर नसात, ऋषिवरजी । षट्ऋतु के हो फूल फल सब वृक्ष फलन्त, सूखे सरवर हो तुरत भरन्त, ऋषिवरजी ॥९॥ नाम तिहारो जो जपै मन वच तिरकाल, जो भवि गावै जी तुम गुणमाल, ऋषिवरजी.। भोग संपदा हो वै नर पायकै फिर इन्द्र पदादि, शिव सरूप मय होवै । जी निज आस्वाद, ऋषिवरजी ॥१०॥
(धत्ता) औषधऋद्धि-धारी, मुनि अविकारी, भक्ति तिहारी, हृदय धरी । करि पूजा सारी, अष्ट प्रकारी, यह गुणमाला कंठ धरी ॥ ॐ ह्रीं औषध-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो जयमालाऽर्घ्य निर्वपामीति
स्वाहा।