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. [४७] दन्त नासिका अंग मैल-मल सर्व ही। व्याधि सर्वको नाश करत हैं लगत ही ॥ मल्लौषधि ऋद्धि येह ताहि धारक मुनी ।
पूजत मन वच काय अर्घ करके गुनी ॥४॥ ॐ ह्रीं मल्लौषधि-ऋद्धि-प्राप्त सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
विष्टा मूत्र जु वीर्य सर्व ऋषिराज के। नाना व्याधि-हरन्त लगत ही साधिके । ऋद्धि विडौषधधार तास पायन परें ।
अष्ट द्रव्यकों मेलि सदा पूजन करें ॥५॥ ॐ ह्रीं बिडौषधि-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा । जिनके तनसूं पवन लागि जा तन लगै । आधिव्याधि बहु रोग विषादिक सब भगै ॥ भूत प्रेत सर्पादि सिंहको भय मिटै ।
सर्वौषधि ऋधिधार पूजते अघ हटै ॥६॥ -- ॐ ह्रीं सर्वोषध-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
जिनके करमें अमृत होय विष सर्व ही। मूर्छित निरविष होत वचन सुन तुरत ही ॥ आस्यविषौषधिऋद्धि-धार ऋषिवर तिन्हें ।
पूजों मन पच काय शुद्ध करिके जिन्हें ॥७॥ ॐ ह्रीं आस्यविषौषधि-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
थावर जंगम सर्व आदि को भय भरै । दृष्टि परत ततकाल सर्प छिनमें हरै ॥ दृष्टिविषौषधि ऋद्धिधार मुनिराज को ।
मन वच तन कर यजों मिटन सब व्याधिकों ॥८॥ ॐ ह्रीं दृष्टि विषौषधि-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।