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जल चन्दन अक्षत अरु पुष्प जु नेवज दीप विमलको । धूप फलादिक अर्घ चढाये पावत पद निर्मलको ॥ यजों मुनि-चरण-कमलको, औषधि ऋध्यधीश यतीश ॥यजों०॥
ॐ ह्रीं सर्व-क्षुद्रोपद्रव-सर्व-विघ्न-विनाशनाय सर्वरोगहराय सर्वशांतिकराय औषध-ऋद्धि-धारक-सर्वमुनीश्वरेभ्यो अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा ।
अथ प्रत्येक पूजा
(दोहा) औषध ऋधिके भेद वसु, ता धारक ऋषिराय । भिन्न भिन्न तिनके चरण, पूजों अर्घ चढाय ॥ ॐ ह्रीं अष्टऔषध-ऋद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
(अडिल्ल छंद) अंग "उपांग रु नख केशादिक सर्व ही। रज पद मुनिकी लगत हरत सब रुज मही ॥ आमर्गौषधिऋद्धि याहि मुनिवर धरै ।
तो ऋषिवर के पाद यजत शिव-तिय वरै ॥१॥ ॐ ह्रीं आमशैषधि-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
मुनि-मुखका डंखार थूकको लगत ही। सर्व रोग मिट जाय असाध्य जु तुरत ही ॥ खेलौषधि ये ऋद्धिधार मुनिवर तनें । पाद-पद्म हम यजै व्याधि सब ही हनें ॥२॥ ॐ ह्रीं खेलौषधि-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
मुनिके अंगके स्वेद मांहिं जो रज परें । सो लागत तत्काल व्याधि सब ही हरै । यह जल्लौषधिऋद्धि धारको नित यजों।
निशदिन तिनके चरण-कमलको मैं भजों ॥३॥ ॐ ह्रीं जल्लौषधि-ऋद्धि-धारक सर्वमुनीश्वरेभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।